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समाधान की ओर

  राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को सभी पक्षों के बीच मध्यस्थता के जरिए सुलझाया जाए या नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अपना फैसला फिलहाल सुरक्षित कर दिया है। बुधवार को अदालत की पांच सदस्यीय...

समाधान की ओर
हिन्दुस्तानWed, 06 Mar 2019 11:55 PM
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राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को सभी पक्षों के बीच मध्यस्थता के जरिए सुलझाया जाए या नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अपना फैसला फिलहाल सुरक्षित कर दिया है। बुधवार को अदालत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ के सामने इस मसले पर जो बहस हुई, उसमें एक मामले पर अदालत ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया है कि वह मसले के समाधान की हरसंभव कोशिश करना चाहती है। अदालत ने यह भी कहा है कि यह किन्हीं दो पक्षों के बीच का नहीं, दो समुदायों का मसला है। यानी अदालत इसे सिर्फ विवादित जमीन की मिल्कियत का मामला ही नहीं मान रही, बल्कि इसके व्यापक प्रभाव पर भी ध्यान दे रही है। देश की सर्वोच्च अदालत ने इस बात को भी समझा है कि इस मामले पर जो भी फैसला होगा, उसका असर देश के करोड़ों लोगों पर पड़ेगा। इसी नजरिए से मध्यस्थता की बात भी आ रही है। बुधवार की सुनवाई के दौरान अदालत की एक और टिप्पणी गौर करने लायक है। सुप्रीम कोर्ट यह मान कर चल रहा है कि बाबर ने क्या किया या अतीत में क्या हुआ, यह महत्वपूर्ण नहीं है, इसलिए कि अतीत में जो हुआ, उसे अब बदला या सुधारा नहीं जा सकता। जाहिर है कि इस मसले या इस विवाद को मौजूदा समस्या की तरह ही देखना होगा और इसी तरह से सुलझाना होगा। 
जहां तक मध्यस्थता के जरिए मामले को सुलझाए जाने का मामला है, इस पर पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे एस केहर की टिप्पणी गौर करने लायक है। जस्टिस केहर ने कहा है, ‘देश के सामने दुनिया को यह दिखाने का एक बहुत बड़ा अवसर आया है कि हम विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच भी मध्यस्थता कर सकते हैं। यह देश के लिए भी अच्छा होगा। अगर हम धार्मिक स्तर पर मध्यस्थता कर लेते हैं, तो दुनिया को यह दिखा सकेंगे कि भारत किन सिद्धांतों पर खड़ा है।’ अच्छी बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट में इस तर्क को ज्यादा महत्व नहीं मिला कि मध्यस्थता की इससे पहले भी कोशिशें होती रही हैं, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। अदालत में माननीय न्यायाधीश ने यहां तक कहा कि मध्यस्थता नाकाम रहेगी, यह हमें पहले से ही मानकर नहीं बैठ जाना चाहिए।
अदालत ने इसे लेकर जो भी फैसला सुरक्षित किया है, उसे सामने आने में अभी कुछ वक्त लगेगा, लेकिन एक बात स्पष्ट है कि इसकी जो बाधाएं हैं, सर्वोच्च न्यायालय उनको भी अच्छी तरह समझ रहा है। सबसे पहले तो इस मामले के जो तीन पक्ष हैं, उनमें से सभी मध्यस्थता के लिए तैयार नहीं हैं। सिर्फ सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़े ने ही मध्यस्थता को स्वीकार करने के लिए हामी भरी है, जबकि न तो रामलला विराजमान इसके पक्ष में है और न उत्तर प्रदेश सरकार। अदालत यह भी समझ रही है कि इन स्थितियों में ऐसे मध्यस्थ को ढूंढ़ना भी आसान नहीं होगा, जो सभी पक्षों को मान्य हो। फिर समाधान के इस रास्ते पर कुछ और संशय भी हैं, जिनका जिक्र न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने बुधवार को किया भी। यह कहना कठिन है कि मध्यस्थता से जो फैसला सामने आएगा, उसे करोड़ों लोग आसानी से स्वीकार भी कर लेंगे। अंत में, इस मसले का फैसला मध्यस्थता से हो या फिर तारीख दर तारीख अदालती सुनवाई से, जरूरी यह है कि इस मामले को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाया जाए। इस पर न राजनीति हो, न जनज्वार बनाने की कोशिश और न  ही फैसले को समय-सीमा के अंदर देने के लिए अदालत पर दबाव बनाया जाए।

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