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ताक पर योजना

  कभी प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि किसी परियोजना के लिए दिल्ली से एक रुपया चलता है, तो अंतिम जगह पर उसके सिर्फ 15 पैसे ही पहुंचते हैं। उस दौर में इसकी काफी आलोचना भी हुई थी, बावजूद...

ताक पर योजना
हिन्दुस्तानMon, 27 Jan 2020 10:55 PM
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कभी प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि किसी परियोजना के लिए दिल्ली से एक रुपया चलता है, तो अंतिम जगह पर उसके सिर्फ 15 पैसे ही पहुंचते हैं। उस दौर में इसकी काफी आलोचना भी हुई थी, बावजूद इसके कि ज्यादातर लोगों ने इसे सच माना था। आज भी यदा-कदा इसकी चर्चा होती है। लेकिन क्या हो, अगर पैसे दिल्ली से चलें ही न? जिस नौकरशाही की वजह से एक रुपया नीचे पहुंचते-पहुंचते 15 पैसे में बदल जाता है, उसी की वजह से कई बार वह रुपया दिल्ली से चलता ही नहीं है। कम से कम केंद्र सरकार की ग्रामीण हाट योजना का अंजाम तो यही बताता है। दो साल पहले केंद्रीय बजट में बडे़ जोर-शोर से इस योजना का एलान किया गया था। इसके लिए दो हजार करोड़ रुपये का प्रावधान भी किया गया था। इस योजना के तहत पूरे देश में 2,200 आधुनिक ग्रामीण कृषि हाट बनाए जाने थे। इसका मकसद था, किसानों को बिचौलियों से बचाना। सोच यह थी कि इससे कृषि बाजार की पहुंच सीधे किसानों तक होगी और उन्हें अपनी फसलों के वाजिब दाम मिल सकेंगे। केंद्र सरकार पहले ही यह घोषणा कर चुकी थी कि वह पांच साल के भीतर किसानों की आमदनी को दोगुना कर देगी। उम्मीद थी कि ये हाट सरकार के उस सपने को पूरा करेंगे और देश के किसानों को समृद्ध बना देंगे। यह योजना उन कुछ समाधानों में से एक थी, जो देश के कृषि संकट को खत्म करने और किसानों को आर्थिक दबाव से बचाने के लिए अक्सर सुझाए जाते हैं। कहा जाता है कि किसानों की कई समस्याओं का समाधान तभी हो सकता है, जब उनके माल की बिकवाली के लिए पर्याप्त और ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर बने, जो उनकी पहुंच के भीतर हो।
लेकिन जो पैसे चले ही नहीं, वे अपनी मंजिल पर भला कैसे पहुंचते? दो साल बाद अब पता चला है कि दो हजार रुपये के उस कृषि कोष में से अभी तक सिर्फ 10 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। बनने तो 2,200 कृषि हाट थे, लेकिन काम सिर्फ 376 का शुरू हुआ। वह भी आधा-अधूरा पड़ा है और किसी अंजाम तक नहीं पहुंचा। इसमें से कोई भी हाट अभी काम नहीं कर रहा है। जाहिर है, अपनी उपज की बिकवाली के लिए किसान अभी भी बिचौलियों के भरोसे होंगे। पहले की तरह ही उन्हें अपनी फसल की वाजिब कीमत नहीं मिल रही होगी और किसानों की आमदनी बढ़ाने का लक्ष्य अभी भी इस योजना के जमीन पर उतरने की बाट जोह रहा होगा। 
जाहिर है कि इसका एक कारण यह गिनाया जा सकता है कि ये योजनाएं जमीन पर राज्य सरकारों के सहयोग से लागू होनी थीं और पर्याप्त सहयोग न मिलने की स्थिति में यह योजना जमीन पर नहीं उतर सकी। बहुत सी योजनाओं को लेकर केंद्र और राज्य का टकराव कोई नई बात नहीं है, इसका एक अर्थ यह भी है कि हमें अक्सर ऐसी योजनाएं मिलती हैं, जिनके मामले में उनके भागीदारों में सहमति नहीं होती। वैसे अभी ठीक से नहीं कहा जा सकता कि इस मामले में योजना के आगे न बढ़ने के ठीक-ठीक कारण क्या थे, लेकिन ऐसे मामलों में दो कारण अक्सर ही दिखाई देते हैं। एक तो नौकरशाही का ढीला रवैया और दूसरा, योजना का जमीनी हकीकत से मेल न खाना। मामला सिर्फ किसानों का नहीं है, किसी भी तरह से इन दोनों ही स्थितियों को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।

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