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चुनावी चर्चा का गिरता स्तर

नेताओं की बिगड़ी जुबान अब कोई नई खबर नहीं है। हर रोज देश के अलग-अलग हिस्सों से ऐसे समाचार आते हैं कि फलां नेता ने आपत्तिजनक बात कही, फलां नेता ने मर्यादा का ध्यान नहीं रखा और फलां ने तो फूहड़ता की सारी...

चुनावी चर्चा का गिरता स्तर
हिन्दुस्तानTue, 16 Apr 2019 12:47 AM
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नेताओं की बिगड़ी जुबान अब कोई नई खबर नहीं है। हर रोज देश के अलग-अलग हिस्सों से ऐसे समाचार आते हैं कि फलां नेता ने आपत्तिजनक बात कही, फलां नेता ने मर्यादा का ध्यान नहीं रखा और फलां ने तो फूहड़ता की सारी हदें ही पार कर दीं। तकरीबन हर दल में ऐसे नेता हैं, जिन्होंने चुनाव आयोग की आचार संहिता को मुंह चिढ़ाने की जैसे ठान ही ली है। यहां महाराष्ट्र के एक नेता का बयान गौर करने लायक है। एक चुनावी सभा में उन्होंने यह स्वीकार किया कि चुनाव के दौरान आचार संहिता को मानने का दबाव रहता है, लेकिन ‘भाड़ में गया कानून, आचार संहिता को भी हम देख लेंगे, जो बात हमारे मन में है, वह बात अगर मन से नहीं निकले, तो घुटन-सी महसूस होती है।’ चुनाव वह समय है, जब हम यह जान पाते हैं कि जिनको हम अपना प्रतिनिधि बनाते हैं, उनके मन में कितने घटिया स्तर की बातें होती हैं। सोमवार को एक साथ ऐसी कई खबरें आईं, जिनमें नेताओं के मन की ऐसी सोच का निचला स्तर सामने आ गया। रामपुर में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार और वरिष्ठ नेता आजम खान ने अपने प्रतिद्वंद्वी भाजपा की जयाप्रदा पर जो टिप्पणी की, उसे अश्लील के अलावा कुछ और करार नहीं दिया जा सकता। दूसरी तरफ हिमाचल के प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने मंच से बाकायदा गाली ही दे दी। इसी के साथ यह भी खबर आई कि ‘चौकीदार चोर है’ के नारे पर सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी को नोटिस जारी कर दिया है।
नेताओं के इस तरह के बिगड़े बोल पूरी तरह से कोई नई चीज है, यह नहीं कहा जा सकता, लेकिन पिछले एक दौर में जिस तरह राजनीति और सार्वजनिक जीवन का चारित्रिक पतन बढ़ा है, उससे इस तरह की चीजों में वृद्धि तो हुई ही है। एक और फर्क यह पड़ा है कि मोबाइल कैमरे और सोशल मीडिया के कारण अब हर कोई निगरानी में रहता है। हर सार्वजनिक सभा, हर बैठक, हर बातचीत कहीं न कहीं रिकॉर्ड हो रही होती है। अब कोई भी, कुछ भी कहकर आसानी से बच नहीं पाता। कुछ ही समय में पूरा देश जान जाता है कि उसके नेताओं के मुंह से कौन से फूल झर रहे हैं। साइबर युग में नेताओं को जिस तरह की सावधानियां बरतनी चाहिए थीं, उन्होंने कभी नहीं बरती और अक्सर ऐसा लगता है कि उन्हें शायद इसकी परवाह भी नहीं है। यह किसी एक दल, किसी एक नेता या किसी एक प्रदेश में नहीं हो रहा, बल्कि यह शायद पूरे देश की राजनीति का चरित्र ही बन गया है।
बात सिर्फ नेताओं और राजनीति के चारित्रिक दोष की नहीं है, समस्या शायद ज्यादा गहरी है। हम राजनीति के उस दौर में पहुंच चुके हैं,जहां चुनावी वादे, घोषणापत्र, नीतियां और यहां तक कि वैचारिक जुड़ाव महज औपचारिकता भर रह गए हैं। कम से कम वोट मांगने वालों का इन पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं रहा। उन्हें नहीं लगता कि उनके वादे और उनकी प्रतिबद्धताएं लोगों में इतना भरोसा जगा पाएंगी कि वे इसी के चलते उन्हें वोट देंगे। इसलिए वोट पाने के दूसरे तरीके आजमाए जाते हैं। कहीं जाति, धर्म के समीकरण बिठाए जाते हैं, तो कहीं पैसे को पानी की तरह बहाया जाता है। बाकी कसर पूरी करने के लिए अपने प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाने की कोशिशें होती हैं। नेताओं की जो सभाएं कभी ओजस्वी भाषणों और दिलचस्प जुमलों के लिए याद की जाती थीं, उनमें अब गाली-गलौज का माहौल बनने लगा है।

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