रिपोर्ट की भूमिका
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी सीएजी की रिपोर्ट अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग भूमिका निभाती रही है। कभी वह आग में घी डालने का काम करती है, जैसे कि यूपीए-दो सरकार के समय भ्रष्टाचार के...
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी सीएजी की रिपोर्ट अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग भूमिका निभाती रही है। कभी वह आग में घी डालने का काम करती है, जैसे कि यूपीए-दो सरकार के समय भ्रष्टाचार के मामले उठने के बाद हुआ था। कभी वह आग पर ठंडे पानी का असर पैदा करने की कोशिश करती नजर आती है। तो कभी उससे अनायास ही कुछ ऐसी चिनगारियां फूट पड़ती हैं, जिसकी किसी को कोई उम्मीद भी नहीं थी, जैसा कि ताबूत घोटाले के मामले में हुआ था। राफेल खरीद मामले पर आई सीएजी की रिपोर्ट को भी हर कोई अपने तरीके से देख रहा है। विपक्षी दलों को शायद पहले ही पता था कि इससे कोई बड़ा धमाका नहीं होने वाला, इसलिए उन्होंने अपनी तैयारी कर ली थी। भारतीय जनता पार्टी और एनडीए ने तो खैर इसे अपनी बेगुनाही के सुबूत के तौर पर पेश करना शुरू ही कर दिया है। हालांकि उनका दावा यह था कि उन्होंने पिछली सरकार के मुकाबले राफेल विमान नौ फीसदी सस्ते खरीदे हैं, जबकि सीएजी रिपोर्ट कह रही है कि कीमतों का फर्क सिर्फ 2.86 फीसदी का ही है। उधर कांग्रेस ने इस रिपोर्ट को ही नकार दिया है। उसके लिए रिपोर्ट को नकारना शायद जरूरी या मजबूरी भी था। कांग्रेस राफेल खरीद की जांच संसदीय समिति से करवाने की मांग कर रही है, सीएजी की रिपोर्ट को स्वीकारने का अर्थ था संसदीय समिति की मांग से पीछे हटना। अब उसका तर्क है कि सीएजी ने कीमत के निर्धारण का जो तरीका अपनाया है, वही गलत है।
वैसे कांग्रेस अगर राफेल की खरीद पर सीएजी की रिपोर्ट को नकार रही है, तो इसमें कुछ नया भी नहीं है। जब राजीव गांधी की सरकार थी और पूरा विपक्ष उन्हें बोफोर्स खरीद के मामले में घेर रहा था, तब सीएजी की रिपोर्ट को विपक्ष ने उसी तरह नकार दिया था, जिस तरह इस बार विपक्ष उसे नकार रहा है। लेकिन शायद अभी यह कहने का समय नहीं आया है कि इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है। बेशक, कांग्रेस अपनी तरफ से कोशिश कर रही है कि राफेल को उसी तरह का मुद्दा बना दिया जाए, जैसे कभी बोफोर्स को बनाया गया था और वह अंत में राजीव गांधी की सरकार के गिरने का एक बड़ा कारण बना था। लेकिन अभी यह नहीं कहा जा सकता कि राफेल लोगों के दिल-दिमाग पर उसी तरह छाया है, जिस तरह कभी बोफोर्स का मुद्दा छाया था। कांग्रेस ही नहीं, पूरा विपक्ष पूरी कोशिश कर रहा है, लेकिन यह मसला अभी तक उस तरह से जमीन नहीं पकड़ पाया है, जिससे चुनाव जीतने की उम्मीद बांधी जा सके।
यहां पर बोफोर्स का जिक्र इसलिए भी जरूरी है कि इस मुद्दे ने न सिर्फ सरकार बदल दी थी, बल्कि यह कई दशकों तक खिंचता रहा था, आज भी गाहे-बगाहे इसे उठाया जाता है। बोफोर्स सौदे की जांच में इस देश ने अपना बहुत सारा समय और बहुत सारा धन खर्च किया था, लेकिन अंत में हाथ कुछ नहीं आया। हो सकता है कि राफेल का मुद्दा इस हद तक न जाए, लेकिन कोशिश इसे वहीं तक ले जाने की है। आशंका यही है कि इस बार भी कुछ खास हाथ लगने वाला नहीं है। लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि आज राफेल का मसला इसलिए उठ रहा है कि हमने बोफोर्स से कुछ नहीं सीखा। न तो हम हथियारों की खरीद का निर्विवाद पेशेवर तरीका बना पाए हैं और न ही हथियारों के मामले में आयात निर्भरता को खत्म कर सके हैं।