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अलविदा कारनाड

गिरीश कारनाड नहीं रहे। नई पीढ़ी के लोग शायद आपसे नहीं पूछेंगे कि गिरीश कारनाड कौन, क्योंकि उन्हें सलमान खान की फिल्म टाइगर जिंदा है  का खुफिया अधिकारी अच्छी तरह याद है। बहुत पुरानी पीढ़ी के लोग...

अलविदा कारनाड
हिन्दुस्तानTue, 11 Jun 2019 06:32 AM
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गिरीश कारनाड नहीं रहे। नई पीढ़ी के लोग शायद आपसे नहीं पूछेंगे कि गिरीश कारनाड कौन, क्योंकि उन्हें सलमान खान की फिल्म टाइगर जिंदा है  का खुफिया अधिकारी अच्छी तरह याद है। बहुत पुरानी पीढ़ी के लोग उन्हें उनके तुगलक, हयवदन  जैसे ढेर सारे नाटकों या मालगुडी डेज  सीरियल में उनके अभियन के लिए आज भी याद करते हैं। और इन दोनों पीढ़ियों के बीच की जो पीढ़ी है, उसके पास गिरीश कारनाड को याद करने के लिए बहुत कुछ है। फिल्म इकबाल  के क्रिकेट को जिसने देखा है, वह भला उसे कैसे भूल सकता है? गिरीश कारनाड की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि जब मनोरंजन की दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है और पुराने लोगों की विस्मृति दर नए लोगों की आगमन दर से कहीं ज्यादा है, उस माहौल में भी उन्होंने अपने आप को लगातार तीन पीढ़ियों तक प्रासंगिक बनाए रखा। नाटक, सिनेमा और सार्वजनिक जीवन के कई दशक हैं, जिनमें वह न कभी पुराने पड़े और न कभी उन्होंने अपना महत्व ही खोया। उन्होंने न सिर्फ तीन पीढ़ियों को जोड़ा, बल्कि लेखन, मंचन और फिल्म जैसी कलाओं को भी हमेशा एक साथ साधे रखा। ऐसा नहीं हुआ कि निर्देशन करने लगे, तो नाट्य लेखन छोड़ दिया या फिल्मों में सक्रिय हुए, तो रंगमंच को हमेशा के लिए अलविदा बोल दिया। अपने अंतिम दिनों तक वह लगातार तीनों कलाओं को साधते रहे और लगातार अपने को मांजते रहे।
वह आजादी के बाद की उस पीढ़ी के महत्वपूर्ण स्तंभ थे, जिन्होंने देश के रंगमंच को एक भारतीय मुहावरा दिया और उसे पश्चिमी तेवर से मुक्ति दिलाई। इस पीढ़ी के चार प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं- मोहन राकेश, विजय तेंदुलकर, बादल सरकार और गिरीश कारनाड। ये चारों न सिर्फ हिंदी, मराठी, बांग्ला और कन्नड़ जैसे देश के अलग-अलग भाषाई समाजों का प्रतिनिधित्व करते थे, बल्कि एक तरह से रंगमंच की दुनिया में भारत के पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण को जोड़ भी रहे थे। इन चारों के ही नाटक न सिर्फ पूरे देश में मंचित हुए और देखे गए, बल्कि लगभग सभी भाषाओं में इनका अनुवाद भी हुआ। आजादी से पहले जन्मे इन चारों कलाकारों में सबसे युवा गिरीश कारनाड ही थे और लंबा सक्रियता काल भी उन्हीं का रहा। बाकी तीनों के मुकाबले फिल्मों से सबसे लंबा जुड़ाव भी उन्हीं का रहा। उनकी पहली फिल्म कन्नड़ भाषा की संस्कार  1970 में रिलीज हुई थी और आखिरी फिल्म टाइगर जिंदा है 2017 में। अभिनय के क्षेत्र में भी वह बाकी तीनों के मुकाबले सबसे ज्यादा सक्रिय रहे और इसीलिए लोकप्रियता भी सबसे ज्यादा शायद उन्हीं को मिली।
कारनाड उन कलाकारों में थे, जिन्होंने अपनी सक्रियता को सिर्फ अपनी कला और रचना-कर्म तक सीमित नहीं रखा। साहित्य, नाटकों और फिल्मों के जरिये उन्होंने जिन मूल्यों को दिया, उन्हें जिया भी। कभी इसकी परवाह नहीं थी कि कौन उनसे सहमत है और कौन असहमत, जो ठीक लगा, उसे कहने और अपना विरोध दर्ज कराने से वह कभी चूके नहीं। सोमवार को जब उनके निधन की खबर आई, तो उनकी दो साल पुरानी वह तस्वीर दिखने लगी, जिसमें वह ‘मी टू अरबन नक्सल’ का  प्लेकार्ड लिए प्रदर्शन कर रहे थे, तब उनका स्वास्थ्य काफी खराब था और नाक में सांस लेने के लिए ऑक्सीजन की नली लगी थी। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो हमारी यादों में हमेशा दर्ज रहेंगे।

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