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आंदोलन के खतरे

प्रतिक्रियाएं वहां भी हो रही हैं, जहां उनकी आशंका नहीं थी। नागरिकता संशोधन विधेयक पूरी तरह से भारत का घरेलू मसला होना चाहिए था। पाकिस्तान की भारत-ग्रंथि इस पर तल्ख टिप्पणियां करेगी, यह तो पहले से ही...

आंदोलन के खतरे
हिन्दुस्तान।,नई दिल्ली।Fri, 13 Dec 2019 11:18 PM
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प्रतिक्रियाएं वहां भी हो रही हैं, जहां उनकी आशंका नहीं थी। नागरिकता संशोधन विधेयक पूरी तरह से भारत का घरेलू मसला होना चाहिए था। पाकिस्तान की भारत-ग्रंथि इस पर तल्ख टिप्पणियां करेगी, यह तो पहले से ही तय था, इसलिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने इसे लेकर जो भी कहा, उसे देश या दुनिया में कहीं भी गंभीरता से नहीं लिया गया। लेकिन जिस तरह से जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे ने अपनी भारत-यात्रा स्थगित कर दी, वह जरूर परेशान करने वाला है। बेशक भारत के नए नागरिकता कानून पर जापान को किसी भी तरह की कोई आपत्ति नहीं है। बात सिर्फ इतनी सी है कि शिंजो अबे के दौरे के समय उनकी और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वार्ता के लिए गुवाहाटी को चुना गया था। उम्मीद थी कि दोनों देशों के प्रधानमंत्री जब असम की राजधानी में एक साथ बैठेंगे, तो भारत की लुक ईस्ट पॉलिसी का नया अध्याय शुरू होगा।

एशिया में इस समय जिस तरह का भू-राजनीतिक समीकरण उभर रहा है, उसमें भारत और जापान के बहुत सारे हित आपस में मिलते हैं, और काफी समय से यह माना जा रहा है कि अब वह समय आ गया है, जब दोनों देशों को सामरिक और व्यापारिक सहयोग की नई इबारत लिखनी शुरू कर देनी चाहिए। लेकिन इस समय पूर्वोत्तर भारत और खासकर असम में जिस तरह से नए नागरिकता कानून को लेकर हंगामा चल रहा है, उसे देखते हुए जापान ने इस दौरे को रद्द करना ही ठीक समझा। घरेलू स्थितियां अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों को किस तरह से बदलती हैं, असम में चल रहा आंदोलन इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। मामला सिर्फ जापान का नहीं है, पड़ोसी बांग्लादेश के दो मंत्रियों ने भी हाल में भारत-दौरा रद्द किया और इसमें भी कारण यही दिया गया।

बेशक, असम में जो लोग आंदोलन कर रहे हैं, उन्होंने यह कभी नहीं चाहा होगा कि दो प्रधानमंत्रियों की महत्वपूर्ण वार्ता में वे इस तरह बाधा बनें। लेकिन कुछ भी हो, नतीजा तो यही निकला। बात सिर्फ असम की ही नहीं है। देश के तमाम हिस्सों में इस कानून को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं, उससे इस तरह के कई खतरे खड़े हो रहे हैं। शुक्रवार को जुमे की नमाज के बाद जिस तरह से देश के कई हिस्सों में प्रदर्शन हुए और ज्ञापन दिए गए, उससे बहुत सारी नई आशंकाएं सिर उठाने लगी हैं। संशोधित कानून की अभी तक समर्थकों व विरोधियों ने कई तरह से व्याख्याएं की हैं। इनमें से सिर्फ एक व्याख्या अल्पसंख्यक समुदाय के मन में कुछ आशंकाओं को जन्म देने वाली है।

इस समय इसी को एकमात्र व्याख्या के रूप में पेश किया जा रहा है, जबकि दूसरी तरफ पूर्वोत्तर में जो आंदोलन चल रहा है, उसके पीछे दूसरी और एकदम विपरीत सी व्याख्या है। समस्या इन व्याख्याओं से नहीं है, उन्हें लेकर हो रहे आंदोलनों से है। समस्या की एक वजह शायद यह भी है कि पहले एकाएक विधेयक आया और उसके तुरंत बाद आंदोलन खड़े होने लग गए। विधेयक से पहले या उसे पेश किए जाने के बाद जिस तरह के राष्ट्रीय विमर्श की जरूरत थी, वह कहीं हुआ नहीं। वैसे, राजनीतिक दलों की दिलचस्पी अक्सर विमर्श खड़ा करने में नहीं, आंदोलन चलाने में होती है, जो लोकतंत्र में अंतिम विकल्प होता है। ऐसे हंगामे क्या नुकसान करते हैं, इसे हमने जापानी प्रधानमंत्री के दौरे के मामले में देख ही लिया है।

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