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इस अभेद्य दीवार के दाग मत देखिए

आइए, अगस्त, 1947 के उत्तरार्द्ध में लौटते हैं। क्या आलम था? प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ‘नियति से साक्षात्कार’ की उम्मीद जता रहे थे। सीमा के दोनों तरफ जलावतन लोग अपने घाव सहलाते हुए...

इस अभेद्य दीवार के दाग मत देखिए
शशि शेखरSun, 13 Aug 2017 10:20 PM
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आइए, अगस्त, 1947 के उत्तरार्द्ध में लौटते हैं। क्या आलम था? प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ‘नियति से साक्षात्कार’ की उम्मीद जता रहे थे। सीमा के दोनों तरफ जलावतन लोग अपने घाव सहलाते हुए खून के आंसू रो रहे थे। आर्थिक तंगहाली का बोलबाला था। राजे-रजवाड़े तय नहीं कर पा रहे थे कि वे उन लोगों के साथ कैसे तालमेल बैठाएंगे, जो कल तक रंक थे? जो रंक थे, उन्हें भी समझ नहीं आ रहा था कि वे अपनी तकदीर के बादशाह बन गए हैं। बदहाली के उस दौर में बादशाहत के सपने बुनना भी बहादुरी की बात थी।

उधर, दिल्ली का सत्ता-सदन तमाम आशंकाओं की जद में था। नेहरू को सामाजिक सद्भाव की फिक्र थी, पटेल देश के एकीकरण और अखंडता के कठिन दायित्व से जूझ रहे थे। रक्षा मंत्री बलदेव सिंह को अपनी सेना का उपयोग सीमाओं की सुरक्षा से ज्यादा सीमा के वास्तविक निर्धारण यानी रजवाड़ों की अक्ल ठिकाने लगाने के लिए करना था। वित्त मंत्री आर के षणमुखम् चेट्टी को खाली खजाने से काम चलाना था। पूरे विश्व के औद्योगिक उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी दो फीसदी के आसपास थी। जबकि 1757 में यही हिस्सेदारी 24 फीसदी हुआ करती थी।

मतलब साफ है, सोने की चिड़ि़या के पंख नुच चुके थे, सिर्फ उसका फड़फड़ाता हुआ पिंजर बचा था। यह जीर्ण-शीर्ण देह भी ऐसी कि यह तय नहीं था कि कब उसका कौन सा हिस्सा अलग जा पड़ेगा। कश्मीर, जूनागढ़, हैदराबाद, उत्तर-पूर्व के रजवाड़े अपनी हरकतों से राष्ट्रीय राजधानी के सत्तानायकों के पेट में पानी कर रहे थे। 

यही वजह है कि ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री चर्चिल हमारा मजाक उड़ा रहे थे। उन्होंने यहां तक कहा कि ‘अगर भारत को आजादी मिली, तो सत्ता चंद दुष्टों, बेईमानों और लुटेरों के हाथ में पहुंच जाएगी..’। दुर्भाग्य से हमारे देश के सामंत और भद्रलोक का एक बड़ा हिस्सा भी ऐसा ही मानता था। मैं जब पैदा हुआ, तब आजादी अपने 15वें वर्ष की ओर खिसक चली थी, पर किशोरावस्था तक सुनता रहा कि अंग्रेजों की हुकूमत भली थी, तब शेर और बकरी एक घाट पानी पिया करते थे। इस जमात में ऐसे लोग भी शामिल थे, जिनके परिजन आजादी की लड़ाई में खटे थे। इन्हीं महानुभावों ने आगे चलकर उनकी पेंशन और पात्रता से झोलियां भरीं, राजनीतिक फायदे लिए तथा बच्चों को सरकारी नौकरियां दिलाईं।

हजारों बरस से राज सत्ताओं के आगे सिर झुकाने के अभ्यस्त ऐसे भारतीय उस समय तक लोकतंत्र की महत्ता को समूचे अर्थ में स्वीकार करने में हिचकिचाते थे। आज जब हम आजादी की 70वीं वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं, तो शुक्र है कि ऐसे गलीज संवाद सुनने को नहीं मिलते। आत्मविश्वास से भरे  125 करोड़ भारतीय तमाम अंतरविरोधों के बावजूद अब सपने तक में नहीं सोच सकते कि कोई हमें गुलाम बना सकता है। 

संतोष का विषय है कि हमने लोकतंत्र को न केवल पोसा, बल्कि उसे अपने जीवन का हिस्सा बना लिया है। ऐसा हो पाना आसान न था। अनेकता में एकता के भावुक नारे के बावजूद यह कटु सत्य है कि हमारे यहां रह-रहकर अलगाव और आपसी नफरत की गरम आंधियां चलती रहीं। आज भी कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन जारी है, माओवादी अलग राग अलापते हैं और कर्नाटक में राष्ट्रभाषा के खिलाफ आंदोलन के अंगारे बोने की कोशिश हो रही है, पर यह सारा वितंडावाद सिर्फ क्षेत्रीय मसला बनकर रह जाता है। राष्ट्र की एकता और अखंडता के बारे में देश में थोड़ी चूं-चपड़ के बावजूद सर्वानुमति है। इसके उलट, हमारे साथ आजाद हुए पाकिस्तान में रह-रहकर सेना सत्ता पर कब्जा करती रही। आज भी राजधानी इस्लामाबाद को सैनिक मुख्यालय रावलपिंडी की भृकुटियों पर ध्यान देना पड़ता है। पड़ोसी नेपाल, श्रीलंका, मालदीव में भी लोकतंत्र आता-जाता रहा है, पर भारत में ऐसा नहीं हुआ। हमने गुजरे सात दशकों में 16 बार जनतांत्रिक तरीके से राष्ट्रीय सत्ता का हस्तांतरण किया। इस्लामाबाद के उलट दिल्ली की सड़कों पर अगर टैंक चले, तो सिर्फ गणतंत्र दिवस के दिन। 

चर्चिल साहब! अगर आप आज होते, तो मैं यकीनन आपकी आंखों में आंखें डालकर कहता कि देखिए, हम जंगली लोगों में भी लोकतंत्र को चलाने की सामर्थ्य है। मैं भावुक बातें नहीं करना चाहता, मगर हमें कुछ खराबियों और खामियों की वजह से अपनी अच्छाइयों पर से नजर फेर लेने की जरूरत भी नहीं। सोचें,  आजादी के 70 साल बाद अमेरिका कहां खड़ा था? आजाद अमेरिका में गुलाम प्रथा जारी थी। अब्र्राहम लिंकन ने 89वें वर्ष में उसे इस जिल्लत से मुक्ति दिलाई। नतीजतन, उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी। इस महादेश में आज तक कोई महिला राष्ट्रपति नहीं बनी है, जबकि भारत गर्व से कह सकता है कि हमारे लोकतंत्र में दलित अथवा अल्पसंख्यक राष्ट्रपति से लेकर महिला प्रधानमंत्री तक सबकी गुंजाइश है। 

ऐसा सिर्फ इसलिए हो सका कि हिन्दुस्तानियों ने जो कदम उठाया, उसे कभी पीछे नहीं खींचा। मसलन, आजादी की वेला में हमारे पास एक संविधान तक नहीं था। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की अगुवाई में कड़ी मेहनत-मशक्कत के बाद जो संविधान रचा गया, उसे आज तक सिर-आंखों पर रखा जाता है। हमने समय-समय पर इसमें संशोधन कर दुनिया को यह भी जता दिया कि समय के साथ चलना और बदलना भारतीयों को बखूबी आता है। 

यही वजह है कि हम न केवल संसार के सबसे बड़े और सफल लोकतंत्र हैं, बल्कि सबसे तेजी से उभरती हुई आर्थिक शक्ति भी। इस सफर को हमने कदम-दर-कदम तय किया है। आंकड़ों की रोशनी में यह तथ्य साफ दिखता है कि 1951 में आजाद भारत की पहली जनगणना के वक्त महज 18 फीसद भारतीय साक्षर थे, 2011 की जनगणना तक हम 74 प्रतिशत का आंकड़ा पार कर चुके थे। इसी तरह जीवन प्रत्याशा तब औसतन 32 साल थी, जो आज करीब 69 वर्ष है। मार्च 2014 में हम पोलियो मुक्त देश घोषित हो चुके हैं। स्वस्थ और साक्षर नागरिक ही मुल्क को तंदुरुस्त बनाते हैं। भारतीयों ने इस तथ्य को न केवल समझा, बल्कि जीने का सलीका भी बनाया।

यह ठीक है कि आज भी हमारे यहां सांप्रदायिक दंगे होते हैं, आज भी दलितों और पिछड़ों को पूरी तरह से मुख्यधारा में शामिल होने में दिक्कतें आती हैं, आज भी धन का असमान वितरण है, आज भी बहुत से लोग प्रकृति के रहमोकरम पर जिंदा हैं, उन्हें जरूरी साधन उपलब्ध नहीं हैं, मगर इसका यह मतलब तो नहीं कि हमारी आजादी निरर्थक हो गई? आजादी के बाद तमाम मौकों पर अंधेरा छाया और लगा कि हमारे कदम लड़खड़ा रहे हैं, लेकिन गिरकर उठना, उठकर सम्हलना और सम्हलकर चल पड़ना, हिन्दुस्तानियों की फितरत है। हमारी प्रगति की गति पर विवाद हो सकता है, पर प्रगति पर नहीं। 

मैं अपने निराशावादी दोस्तों को याद दिलाना चाहूंगा कि मजबूत-से-मजबूत दीवार को वक्त के थपेड़े धुंधला कर देते हैं। हमारे लोकतंत्र की अभेद्य दीवार पर भी कभी-कदा कुछ दाग दिखते हैं, मगर हम उन्हें सफलतापूर्वक धोते आए हैं और आगे भी ऐसा करते रहेंगे। ये दाग अच्छे हैं, हमें आत्मचिंतन और सुधरने का अवसर जो देते हैं। 

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