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पड़ोसी देशों की साजिश का नतीजा

आखिरकार वही हुआ, जिसका अंदेशा था। लंबे समय से चल रहे हिंसक छात्र आंदोलन और अराजकता के भंवर में हिचकोले खाती हसीना की सरकार का तख्तापलट हो गया। फिलहाल कमान सेना के हाथों में है। वहां से आई तस्वीरें...

पड़ोसी देशों की साजिश का नतीजा
Pankaj Tomarहिन्दुस्तानTue, 06 Aug 2024 10:20 PM
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आखिरकार वही हुआ, जिसका अंदेशा था। लंबे समय से चल रहे हिंसक छात्र आंदोलन और अराजकता के भंवर में हिचकोले खाती हसीना की सरकार का तख्तापलट हो गया। फिलहाल कमान सेना के हाथों में है। वहां से आई तस्वीरें खौफनाक हैं। अराजक बनी भीड़ और आतताइयों ने प्रधानमंत्री कार्यालय और आवास को घेर लिया और उस पर अपना कब्जा कर लिया। प्रधानमंत्री आवास में बिस्तर पर लेटे उपद्रवियों के वीडियो भी सोशल मीडिया पर पोस्ट किए गए हैं। ऐसी विस्फोटक स्थिति में प्रधानमंत्री शेख हसीना अपने पद से इस्तीफा देकर जैसे-तैसे जान बचाकर भागीं। यह पूरा प्रकरण 21वीं सदी में परिपक्व होते लोकतंत्र पर करारा तमाचा है कि किस प्रकार हुड़दंगियों और बाहरी ताकतों द्वारा लोकतंत्रात्मक ढंग से चलती सरकार को उखाड़ फेंक दिया जाता है। उपद्रवियों की हरकत से स्पष्ट है कि इस तख्तापलट की साजिश पड़ोसी देश में रची गई है। नहीं तो आखिर क्या कारण है कि जिस बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान ने बांग्लादेश को जन्म दिया, आज उन्हीं की प्रतिमाओं पर हथोड़े चलाए जा रहे हैं और उनके मेमोरियल को आग के हवाले किया जा रहा है। साफ है, शक की सुई पाकिस्तान और चीन की तरफ ही उठती है। बहरहाल, जो होना था, वह हो गया। वक्त का अब यही तकाजा है कि वहां किसी तरह से लोकतंत्र को बहाल किया जाए। इसमें अगर कहीं हमारी मदद की जरूरत होगी, तो हमारी सरकार शायद ही मना करेगी।
हर्ष वर्द्धन, टिप्पणीकार


चिंतनीय घटनाक्रम
आरक्षण को लेकर बांग्लादेश में लोगों के धैर्य का बांध टूट ही गया। सड़कों पर हिंसक प्रदर्शन के बाद आंदोलनकारी प्रधानमंत्री आवास पहुंचे और फिर संसद। विशेषज्ञ यही बता रहे हैं कि पाकिस्तान ने बांग्लादेश के हिंसक प्रदर्शन के लिए अपनी सारी ताकत झोंक दी थी। यह दूसरा मौका है, जब प्रधानमंत्री आवास पर इस तरह प्रदर्शनकारियों ने कब्जा किया। इससे पहले श्रीलंका में हम यह दृश्य देख चुके हैं। सवाल है कि पाकिस्तान ऐसा क्यों कर रहा है? असल में, नई दिल्ली ने बांग्लादेश में काफी निवेश कर रखा है, जिसको लेकर पाकिस्तान के सीने पर सांप लोट रहा था। चूंकि वह अकेले कुछ नहीं कर सकता था, इसलिए उसने चीन की मदद से यह पूरा षड्यंत्र रचा। सवाल यह भी है कि इस पूरे प्रदर्शन के दौरान रोकथाम के लिए कहीं सेना मौजूद नहीं थी। ऐसे में, भारत ने स्वाभाविक ही पूरे घटनाक्रम पर पैनी निगाह बनाए रखी है। वहां के हालात वाकई चिंताजनक हैं।
युगल किशोर राही, टिप्पणीकार

हसीना सरकार ने स्थिति खुद बिगाड़ी
कहने वाले भले यह कहते रहें कि दूसरे देशों की साजिश का शिकार शेख हसीना बनी हैं, लेकिन हकीकत यही है कि उन्होंने खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारी है। शेख हसीना ऐसे चुनाव से चुनकर आई थीं, जिसमें विपक्ष ने भागीदारी ही नहीं की थी। जाहिर है, जो भी वोट मिला, (हालांकि उसमें लोगों ने उत्साह नहीं दिखाया) सब उन्हीं के खाते में गया और वह प्रधानमंत्री पद पर आसीन हो गईं। मगर बाद में उन्होंने जो फैसले लिए, वे जनता के खिलाफ ही माने जाएंगे। आरक्षण का ही यह मामला देखिए। होना तो यह चाहिए कि अब मुक्तियोद्धाओं को दी जा रही विशेष रियायत खत्म करनी चाहिए थी, लेकिन उनके पोते-पोतियों को आरक्षण का लाभ देने की बात हुई। चूंकि मुक्ति योद्धा आमतौर पर अवामी लीग के ही समर्थक हैं, इसलिए यदि हसीना सरकार का यह फैसला अपने वोट-बैंक को मजबूत करने वाला माना गया, तो यह गलत नहीं लगता। 
इस आरोप को बल मिलता है सरकार के रवैये से। देश में भाई-भतीजावाद भी खूब किया गया और भ्रष्टाचार के मामले भी सामने आए। इन सबने आम लोगों की मुश्किलें बढ़ा दीं, लेकिन सरकार मानो बेफिक्र होकर अपने में मस्त रही। यहां तक कि जब मानवाधिकारों के उल्लंघन और तानाशाही के आरोप हसीना सरकार पर लगे, तब भी प्रधानमंत्री ने कोई सक्रियता नहीं दिखाई, उदासीन बनी रहीं। इसने जनता के मन में उनके प्रति जबर्दस्त नाराजगी पैदा की। यह नाराजगी कितनी बड़ी थी, इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि जब प्रधानमंत्री पद से इस्तीफे के बाद शेख हसीना के बांग्लादेश छोड़ने की खबर आई, तो आक्रोशित आंदोलनकारियों ने शेख मुजीबुर्रहमान की मूर्ति तक तोड़ डाली। शेख मुजीबुर्रहमान वही नेता हैं, जिनको बांग्लादेश बनाने का श्रेय दिया जाता है। कहने का मतलब यह है कि बांग्लादेशियों ने अपने राष्ट्र-निर्माता का भी अपमान किया, क्योंकि वह शेख हसीना के पिता हैं। 
जाहिर है, अगर किसी पार्टी को सत्ता मिलती है, तो वह खुद को सर्वशक्तिमान समझने की भूल न करे। श्रीलंका की घटना के बाद बांग्लादेश में जिस तरह से तख्तापलट किया गया है, उसका संदेश यही है। किसी भी लोकतंत्र में सरकार का मुख्य दायित्व लोकतंत्र की रक्षा करना है। इसके लिए उसे जनता की मुश्किलों का समाधान करना होता और उसके दुख-सुख को समझना पड़ता है। लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही नहीं चल सकती। यह बात हर लोकतांत्रिक देश को समझ लेना चाहिए। यदि सरकार ऐसा नहीं करेगी, तो यह जनता, जो उसे सिर चढ़ाती है, उतरना भी जानती है। 
विकास कुमार, टिप्पणीकार