बैठक से दूर रहकर अपना कर्तव्य न भूले विपक्ष
आखिर सरकार करे, तो क्या करे? उसने हर सत्र के शुरू होने से पहले सर्वदलीय बैठकें करके देख ली। दोनों सदनों के अध्यक्ष और उप-सभापति ने बारंबार समझा-समझाकर सहयोग की अपील कर ली। प्रधानमंत्री ने भी बार...
आखिर सरकार करे, तो क्या करे? उसने हर सत्र के शुरू होने से पहले सर्वदलीय बैठकें करके देख ली। दोनों सदनों के अध्यक्ष और उप-सभापति ने बारंबार समझा-समझाकर सहयोग की अपील कर ली। प्रधानमंत्री ने भी बार-बार सदस्यों से सदन को शांतिपूर्वक बहस के जरिये चलने/चलाने की विनम्र अपील कर डाली। बावजूद इसके एनडीए को सत्ता के आरंभ (2014 ) से अभी तक विपक्ष का सहयोग नहीं मिल पाया है। इसके उलट हर सत्र में विपक्षी सांसदों के ‘वाक आउट’, हंगामे, अनर्गल बहस के अलावा सरकार को कुछ भी हासिल नहीं हुआ। नीति आयोग की बैठक का भी लगभग सभी विपक्षी दलों ने बहिष्कार कर दिया। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री आईं जरूर, लेकिन उन्होंने भी यह आरोप लगाकर बाहर का रास्ता नापा कि उनको बोलने नहीं दिया गया, माइक बंद कर दिया गया। हालांकि, सरकार ने इससे इनकार किया है। क्या देश के मतदाताओं ने भारी संख्या में विपक्ष को इसीलिए भेजा है कि वे उनके हितकारी कार्यों पर संसद में बहस करने के बजाय सब कुछ हंगामे या बहिष्कार की भेंट चढ़ा दें? विपक्ष मतदाताओं के बहुमूल्य मतों को समझे। इतनी नासमझी न करे कि मतदाता उनको अपरिपक्व या विघ्नसंतोषी ही समझने लगे। सड़क पर न सही, मगर संसद में तो मतदाताओं की भावनाओं के अनुरूप उनको सौंपी गई जिम्मेदारी के प्रति वे गंभीरता दिखाएं और अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए मतदाताओं से किए वादों को सदन में बैठकर पूरा करें। तभी उनका निर्वाचन सार्थक माना जाएगा।
शकुंतला महेश नेनावा, टिप्पणीकार
यह राजनीति उचित नहीं
नीति आयोग ऐसा कोई मंच नहीं, जिसे दलगत राजनीति का अखाड़ा बनाया जाए। वैसे भी, इस बार तो नीति आयोग की बैठक का एजेंडा देश को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने के उपाय और सुझावों पर केंद्रित था। आखिर इस एजेंडे पर विपक्षी दलों के मुख्यमंत्री को राजनीति करने की क्यों सूझी? वे यह ठान चुके हैं कि वे किसी भी, यहां तक के राष्ट्रीय हित के विषय पर भी सरकार के साथ मिलकर चलने को तैयार नहीं। इसकी झलक संसद में मिल ही चुकी है। विपक्षी दलों का तर्क है कि उन्होंने नीति आयोग की बैठक का बहिष्कार इसलिए किया, क्योंकि बजट में विपक्ष-शासित राज्यों की कथित तौर पर अनदेखी की गई। एक तो यह जनता को गुमराह करने वाला तर्क है, और यदि ऐसा लगता है, तो उन्होंने अपनी बात आयोग की बैठक में प्रधानमंत्री के समक्ष कहने का अवसर गंवना क्यों पसंद किया?
विनय सिंह, टिप्पणीकार
पूरा दोष विरोधी दलों पर नहीं दिया जा सकता
नीति आयोग की बैठक का बहिष्कार सभी विपक्षी दलों के मुख्यमंत्री ने किया। ममता बनर्जी आईं और तुरंत निकल गईं, क्योंकि उन्होंने आरोप लगाया कि उन्हें बोलने नहीं दिया गया। यह बैठक राज्यों को अपनी वित्तीय स्थिति केंद्र के सामने रखने का मौका दे रही थी। लिहाजा, जो मुख्यमंत्री इसका बहिष्कार कर रहे थे, वे अपनी जनता के साथ ही धोखा कर रहे थे। कांग्रेस और दूसरी पार्टियां जिस तरह से सांविधानिक बैठकों का राजनीतिकरण कर रही हैं, वह वाकई चिंताजनक है। सत्तारूढ़ दल की नीतियों का विरोध करना विपक्ष का धर्म है, लेकिन विरोध में वाजिब मुद्दे भी उठाए जाने चाहिए। मगर, सच यह भी है कि पूरा दोष विपक्ष को नहीं दिया जा सकता। संविधान के मुताबिक, केंद्र सरकार राज्य सरकारों के जरिये ही देश को संभाल सकती है। राज्य सहयोग नहीं करेंगे, तो केंद्र का काम करना कठिन है। केंद्र को लचीला रुख अपनाना चाहिए। एक विपक्ष की मुख्यमंत्री नीति आयोग की बैठक में आती हैं, तो उनको आप निर्धारित चंद मिनटों से ज्यादा बोलने नहीं देते, जबकि दूसरे विपक्षी मुख्यमंत्री आए ही नहीं थे। ऐसे में, उनका समय तो ममता बनर्जी को दिया जा सकता था। मान लिया कि कांग्रेस और ममता की राजनीति सब जानते हैं, लेकिन सरकार को थोड़ा इनको साथ लेने की कोशिश करनी ही चाहिए, क्योंकि यह देश का मामला है। विपक्ष में कई ऐसे नेता हैं, जो भाजपा के रुख का सम्मान करते हैं। बीजेपी ऐसे विपक्ष के लोगों को अपना पक्ष समझा सकती है। अलबत्ता, जो बैठक में नहीं आने की घोषणा कर चुके थे, उन्हें मनाने के लिए कुछ नहीं किया गया। ये कोई नौकरशाहों की बैठक नहीं थी, देश के विकास के लिए बुलाई गई बैठक थी। भाजपा को प्यार से विरोधियों को मात देनी चाहिए थी। उम्मीद है, पार्टी आगे ऐसी बैठकों में इसका ख्याल रखेगी।
अतुल कुमार श्रीवास्तव, टिप्पणीकार
जरूरी है बहिष्कार
यह सही है कि नीति आयोग जैसी बैठकों से दूरी नुकसानदेह है, पर विरोधी दलों के पास अब कोई उपाय भी नहीं बचा था। यह अब साफ-साफ दिखने लगा है कि विपक्षी दलों की सूबाई सरकारों के साथ दोयम दरजे का व्यवहार किया जा रहा है। उनको पर्याप्त बजट तक आवंटित नहीं किए जा रहे। यहां तक कि विपक्षी नेताओं के माइक बंद कर दिए जाते हैं। ऐसे में, बैठकों का बहिष्कार उनका एक अहिंसक प्रतिरोध माना जाएगा, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। उम्मीद है, इससे सत्तारूढ़ दल पर कुछ असर पड़ेगा और वह विपक्षी दलों को साथ में लेकर आगे बढ़ने की सदिच्छा दिखाएगा। इससे देश को फायदा ही होगा।
रोहित, टिप्पणीकार