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विरोध करना मतलब सियासी आदत

देश के किसी भी कोने में चाहे भ्रष्टाचार से बनी इमारतें, पुल या मूर्तियां ध्वस्त हों या कानून-व्यवस्था को धत्ता बताते हुए दरिंदगी से भरी आपराधिक घटनाएं घटित हों, हर मामले के लिए प्रादेशिक या...

विरोध करना मतलब सियासी आदत
Pankaj Tomarहिन्दुस्तानMon, 02 Sep 2024 10:58 PM
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देश के किसी भी कोने में चाहे भ्रष्टाचार से बनी इमारतें, पुल या मूर्तियां ध्वस्त हों या कानून-व्यवस्था को धत्ता बताते हुए दरिंदगी से भरी आपराधिक घटनाएं घटित हों, हर मामले के लिए प्रादेशिक या केंद्रीय सत्ता पर दायित्व का ठीकरा फोड़ना और त्याग-पत्र की मांग करना राजनीतिक दलों की आदत बन चुकी है। लोकतंत्र का दुखद पहलू यही है कि पक्ष, विपक्ष और विभिन्न राजनीतिक गठबंधन से जुड़े दल सत्ता-संघर्ष के लिए लोकतांत्रिक मर्यादाओं को लांघने में भी कोई संकोच नहीं कर रहे हैं। इसके लिए वे हर मुद्दे को राजनीतिक चश्मे से देखते हैं और सियासी मकसद के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं। यदि ऐसा नहीं होता, तो अमानवीय और भ्रष्टाचार की पृथक-पृथक घटनाओं पर पक्ष और विपक्ष अलग-अलग राजनीति न करते। 
हाल ही में राजकोट जिले में स्थापित छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा के धराशायी होने के बाद महाराष्ट्र में ऐसा सियासी भूचाल आया कि शीर्ष सत्तानायकों के माफी मांगने के बाद भी विपक्षी गठबंधन इसे बड़ा मुद्दा बनाए रखने पर आमादा है। आज की राजनीति ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ की तर्ज पर फूंक-फूंककर कदम रखने हेतु की जाती है। देश भर में सत्ता की कमजोरियों को निशाना बनाकर हर घटना के लिए देश या प्रदेश के सत्तानायक को जिम्मेदार ठहराकर उससे इस्तीफे की मांग करने का चलन बढ़ गया है। यही कारण है कि कोलकाता में एक प्रशिक्षित डॉक्टर के साथ हुई बर्बरता के बाद मतलब की राजनीति फिर से नजर आई और राज्य सरकार की विरोधी पार्टियां विरोध-प्रदर्शन पर उतर आईं। साफ है, तमाम दलों के नेता अपने-अपने मतलब की राजनीतिक रोटी सेंक रहे हैं और सियासत की आंच गरम रखने की कोशिश में हैं।
बेशक, भ्रष्टाचार का मामला हो या कानून-व्यवस्था का, दोषी काफी हद तक सरकार ही है, लेकिन इतनी भी नहीं कि हर घटना को मुद्दा बनाकर मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री से पद छोड़ने की मांग की जाए। वाकई, देश बहुत बड़ा है, जिसमें सबकी आस्था का सम्मान होना चाहिए, लेकिन क्या राजनीतिक दलों को देश की आस्था की चिंता है? क्या बंगाल या देश के किसी भी कोने में महिलाओं के विरुद्ध होने वाले यौन अपराधों में वहां की सरकार लिप्त रहती है? यदि नहीं, तो भ्रष्टाचार या कानून-व्यवस्था से जुड़ी हर घटना पर पक्ष-विपक्ष द्वारा धरना, प्रदर्शन या तोड़फोड़ को उचित कैसे ठहराया जा सकता है? राजनीतिक दल ऐसे मसलों पर संजीदगी दिखाएं और अपनी-अपनी राजनीति चमकाने के बजाय आपस में मिल-जुलकर ऐसा उपाय करें कि फिर से घटना की पुनरावृत्ति ही न हो। यही देश और समाज के हित में होगा।
सुधाकर आशावादी, टिप्पणीकार

गलती करने वाले की जरूर होगी खिंचाई
हाल ही में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री को फिर से चिट्ठी लिखी कि देश में महिलाओं के साथ होते दुष्कर्म को रोकने और दोषियों को कानूनी कठघरे में खड़ा करके सख्त से सख्त सजा देने हेतु सरकार काफी कठोर कानून बनाए। ऐसा कहते हुए शायद उन्हें इस बात एहसास न रहा हो कि भारतीय संविधान और हमारे कानून इतने कठोर हैं कि कोई भी दोषी सलाखों से बच नहीं सकता। दिक्कत बस यही है कि स्वार्थ की राजनीति ने मानो व्यवस्था को कुछ शिथिल बना दिया है। अगर राजनेताओं की इच्छाशक्ति कानून का नि:स्वार्थ पालन करने या कराने की हो, तो अपराधी चंद मिनटों में ही पकड़ में आ सकता है और उसे सख्त से सख्त सजा दी जा सकती है। अतीत में दुष्कर्म अथवा अन्य जघन्य अपराधों के अपराधियों को सख्त सजाएं मिली भी हैं। अत: यह कहना गलत होगा कि अपराधियों को दबोचने के पर्याप्त कानून अपने देश में नहीं हैं।
अपने देश में एक चीज अच्छी है कि जिसकी गलती होती है, उसका जमकर विरोध किया जाता है। संविधान-निर्माताओं ने ऐसा संविधान हमें सौंपा है, जो देश को अनवरत ऊंचाई पर ले जाने में सक्षम है। कानूनविदों ने भी अपराध कम करने हेतु सख्त निणय लिए हैं। मगर समस्या तब आती है, जब इनके क्रियान्वयन में ढीला रुख अपनाया जाता है। संविधान का अपने हिसाब से वर्णन किया जाता है, तो लंबी कानूनी प्रक्रिया द्वारा न्याय तक लोगों की पहुंच कमजोर बनाई जाती है। तमाम विश्लेषक यही कहते हैं कि देश के कानून तो काफी सख्त हैं, बस उसके साथ खिलवाड़ करने वालों पर शिकंजा कसने की जरूरत है। वाकई, जब संविधान में संशोधन करने की ताकत हमारे पास है, तो हमें उसका सख्ती से पालन सुनिश्चित करना चाहिए, न कि नई कानूनी धाराओं को अपनाने पर ज्यादा जोर देना चाहिए।
इसी कारण, यदि कोई राज्य सरकार कानून पर उंगली उठाती है, तो उसे सबसे पहले मौजूदा कानून को अपने यहां सख्ती से पालन करना चाहिए। अगर ऐसा किया गया, तो न सिर्फ राज्य विशेष में, बल्कि पूरे देश में आपराधिक मामलों में कमी आ सकती है। अच्छी बात है कि दबाव समूह या सिविल सोसायटी के लोग इसके लिए लगातार प्रयास करते रहते हैं, जिनमें उनको काफी हद तक सफलता भी मिली है। राज्य सरकारें अब पहले से कहीं ज्यादा संवेदनशील बनी हैं, इसलिए किसी की आलोचना को यूं ही खारिज कर देना गलत होगा। विरोध की वजह यदि हम समझ जाएंगे, तो सामने वाले पक्ष की नाराजगी को समझना आसान होगा और फिर हम उसका आसानी से निपटारा कर सकेंगे।
शकुंतला महेश नेनावा, टिप्पणीकार