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एक पीढ़ी के लिए ही आरक्षण उचित

अनुसूचित जाति/जनजाति आरक्षण के अंदर कोटे का जब ऐतिहासिक फैसला सुनाया जा रहा था, तब सुनवाई के क्रम में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस पंकज मित्तल ने एक मार्के की टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि आरक्षण केवल...

एक पीढ़ी के लिए ही आरक्षण उचित
Pankaj Tomarहिन्दुस्तानFri, 02 Aug 2024 09:55 PM
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अनुसूचित जाति/जनजाति आरक्षण के अंदर कोटे का जब ऐतिहासिक फैसला सुनाया जा रहा था, तब सुनवाई के क्रम में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस पंकज मित्तल ने एक मार्के की टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि आरक्षण केवल पहली पीढ़ी को ही मिलना चाहिए, अगर एक पीढ़ी आरक्षण लेकर उच्च स्तर पर पहुंच गई है, तो अगली पीढ़ी को इसका हकदार नहीं मानना चाहिए। उनकी बात सही और तार्किक जान पड़ती है, क्योंकि जिन लोगों को आरक्षण का लाभ मिल चुका है और वे या उनका परिवार यह लाभ उठाकर इस भौतिक दुनिया में सक्षम बन चुका है, तो उन्हें स्वेच्छा से इस सुविधा का त्याग कर देना चाहिए। इससे न सिर्फ व्यवस्था को लाभ पहुंचेगा, बल्कि इस सुविधा को लेने के इच्छुक अन्य जरूरतमंदों को भी फायदा मिल सकेगा। अभी होता यह है कि आमतौर पर सक्षम लोग ही आरक्षण का लाभ उठा लेते हैं और जरूरतमंदों तक यह सुविधा नहीं पहुंच पाती। वंचित समाज में भी आर्थिक आधार पर ऊंच-नीच कायम है। वहां भी आरक्षण का बेजा लाभ लेकर सक्षम लोग अपने ही वर्ग के अन्य लोगों का नुकसान कर रहे हैं। ऐसे में, इस व्यवस्था में बदलाव आवश्यक है।
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने आरक्षण के जरिये अधिक से अधिक लोगों के जीवन-स्तर को उठाने की बात कही थी। उन्होंने यह विश्वास जताया था कि अगले कुछ वर्षों में जब वंचित तबकों का स्तर मुख्यधारा की जातियों के समान हो जाएगा, तब आरक्षण की व्यवस्था भी खत्म हो जाएगी। किंतु अफसोस, राजनीतिक दल वोट-बैंक की राजनीति और अपने स्वार्थ के चलते 10 वर्षों की मियाद को लगातार आगे बढ़ाते गए। आज स्थिति यह हो गई है कि आरक्षण के मामले में बातचीत करने का मतलब ही होता है, हवन करते हाथ जलाना। यह ऐसा विषय बन चुका है, जिसे छोड़ा भी नहीं जा सकता और आगे बढ़ाने पर सामाजिक विभेद बढ़ने का खतरा भी बढ़ सकता है। 
स्पष्ट है, अब आरक्षण की व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव होना ही चाहिए। यही वक्त की जरूरत है। मेरा मानना है कि जातिगत नीति के बजाय आर्थिक आधार पर अतिगरीब/पिछडे़ जरूरतमंदों के जीवन-स्तर को ऊपर उठाने के लिए नीतियां बननी चाहिए या आरक्षण की सुविधा मिलनी चाहिए। और, एक बार जब आप आर्थिक रूप से उन्नति कर जाएं, तो आपके लिए आरक्षण की व्यवस्था खत्म कर देनी चाहिए। इसी से समाज का व्यापक फायदा होगा। वास्तव में, आरक्षण व्यवस्था पर एक सारगर्भित टिप्पणी की गई है। इसे सकारात्मक रूप से हमें देखना चाहिए।
शकुंतला महेश नेनावा, टिप्पणीकार

इससे मूल समस्या हल नहीं हो सकेगी
आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कोई टिप्पणी करना उचित नहीं। मगर एक पीढ़ी के लिए आरक्षण की जो बात अदालत में कही गई, उसके कम से कम एक पहलू पर जरूर ध्यान देना चाहिए। ऊपरी तौर पर कई लोगों को यह लग सकता है कि एक पीढ़ी को आरक्षण देकर अगली पीढ़ी को इससे वंचित कर देना चाहिए, लेकिन असलियत में आरक्षण की समस्या का हल तब तक नहीं हो सकता, जब तक देश में जाति का सवाल बना रहेगा। अगर समाज में जातियां कायम रहेंगी, तो आरक्षण रूपी व्यवस्था को भी बरकरार रखना होगा, अन्यथा निचले तबके में असंतोष फैल सकता है। असल में, हम आजादी के साढ़े सात दशकों के बाद भी कार्यस्थलों पर जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव को बंद नहीं कर सके हैं। क्या इसकी गारंटी ली जा सकती है कि यदि सक्षम होने वाली पीढ़ी की संतानें दफ्तरों में पहुंचीं, तो उनके साथ किसी तरह का दुर्व्यवहार नहीं होगा? जब तक यह भेदभाव हम बंद नहीं कर सकेंगे, तब तक आरक्षण को भी हमें बनाकर रखना होगा। आरक्षण पर भले ही सवाल उठाइए, लेकिन पहले मूल समस्या का समाधान कीजिए। अगर उन समस्याओं का अंत हो गया, तो यकीन मानिए, आरक्षण की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। 
रंजीत राम, टिप्पणीकार


बदलाव का अंदाज
पुरानी पीढ़ियों को याद कीजिए। पढ़ने पर जितना जोर आज की मां देती हैं, उतना कभी परदादी देती थीं? उन दिनों मास्टर साहब को ही डांट पड़ जाती- ‘इतनी जमीन है, उससे काम चल जाएगा। खबरदार, जो मेरे बच्चे को हाथ लगाया!’ बाद की पीढ़ी की माएं बच्चों के पीछे पड़ीं, ‘नहीं पढ़ोगे, तो क्या होगा तुम्हारा?’ अब आज की पीढ़ी का हाल देखिए। आज मां-बाप बच्चों के बदले मानो खुद ट्यूशन पढ़ते हैं, होमवर्क करते हैं, फिर भी काम नहीं चलता! क्यों? जैसे-जैसे रिजर्व (पुश्तैनी जमीन, दुकान या दस्तकारी के छोटे-मोटे हुनर और पूंजी आदि) खत्म होते गए, उसी अनुपात में अधिकतर परिवारों में मां-बाप और बेटे-बेटियों के आपसी संबंधों में बदलाव आते गए। आज करियर का दबाव इतना अधिक बढ़ गया है कि मां-बाप और शिक्षक  अपने ही बच्चों के दुश्मन जान पड़ते हैं। अगर यह स्थिति नहीं बदली, तो आरक्षण को लेकर संघर्ष और तनाव आगे बढे़गा। 
साफ है, आने वाले बच्चों की पीढ़ी अपने बच्चों की और बड़ी दुश्मन साबित होगी। जैसे-जैसे हम अपने और सबके मजदूर बनने और कमतर होने वाली स्थिति पर सवाल खड़ा करेंगे, वैसे-वैसे ही इस स्थिति से उबरने लगेंगे।
गंगादीन लोहार, टिप्पणीकार