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रचना-कर्म का मर्म 

कुम्हार को देख रहा हूं। मिट्टी गूंथकर उसकी लोई बना रहा है। बड़ी तन्मयता से वह मिट्टी को गूंथ रहा है। गूंथते समय वह यह भी सुनिश्चित कर रहा है कि गुंथन आकार लेते समय छूटे नहीं। खिंचाव और फैलाव के काल...

रचना-कर्म का मर्म 
अरुण प्रकाश की फेसबुक वॉल सेTue, 21 Sep 2021 11:22 PM

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कुम्हार को देख रहा हूं। मिट्टी गूंथकर उसकी लोई बना रहा है। बड़ी तन्मयता से वह मिट्टी को गूंथ रहा है। गूंथते समय वह यह भी सुनिश्चित कर रहा है कि गुंथन आकार लेते समय छूटे नहीं। खिंचाव और फैलाव के काल में भी अविच्छिन्न रहे। इस तरह लोई बनाकर उसे वह चाक पर सजा देता है। फिर डंडे से अपने चाक को घुमाता है। माथे का पसीना पोंछता है, और आस-पास का बोध लेता है, फिर अपने काम में लग जाता है। अब उसका पूरा ध्यान घूमते चाक के मध्य रखी लोई पर है। वह अंगुलियों और अंगूठे से माध्यम से मिट्टी को नया रूप दे रहा है। चाक घूम रहा है। पात्र आकार ले रहा है। ऐसा लग रहा है, जैसे लपेट खुल रही है और स्वरूप उभर रहा है। तभी, कुम्हार के चेहरे पर मेरी नजर जाती है। लगता है, वह स्वयं को ही चाक पर रख चुका है। उसका आत्म-निवेश पात्र के रूप में विकसित हो रहा है। वह जिस अनुपात में अपने होने के बोध से परे हो रहा है, उसी अनुपात में पात्र का अस्तित्व आकार ले रहा है। वह पात्र कुम्हार के ही अस्तित्व का विस्तार है। सर्जन कितना संयम और समर्पण मांगता है! इसमें जरा सी चूक से हम आरंभ बिंदु पर आ ठहरते हैं। वहीं, जहां से शुरू हुए। 
 

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