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इन्हें क्रांतिकारी नहीं, अराजकतावादी कहिए

बेरोजगार आंदोलनकारी बिना किसी कारण शेख हसीना को दोषी साबित करने पर तुले हुए हैं। चूंकि इन युवाओं ने ही बांग्लादेश में सत्ता गिराई है, इसलिए इन्हें बस अपने को सही साबित करना है। शेख हसीना कट्टरपंथ...

इन्हें क्रांतिकारी नहीं, अराजकतावादी कहिए
Pankaj Tomarहिन्दुस्तानSun, 11 Aug 2024 11:09 PM
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बेरोजगार आंदोलनकारी बिना किसी कारण शेख हसीना को दोषी साबित करने पर तुले हुए हैं। चूंकि इन युवाओं ने ही बांग्लादेश में सत्ता गिराई है, इसलिए इन्हें बस अपने को सही साबित करना है। शेख हसीना कट्टरपंथ से निपट रही थीं, जमात व आतंकी गुटों के आगे नहीं झुक रही थीं, अल्पसंख्यकों की रक्षा कर रही थीं और यह सब वहां के कई कट्टरपंथियों को पसंद नहीं आ रहा था। बांग्लादेश तरक्की कर रहा था, जीडीपी ऊंचाइयां छू रही थी, विशेषज्ञों का अनुमान था कि बांग्लादेश जल्द ही काफी मजबूत अर्थव्यवस्था बनकर उभरेगा, लेकिन आतंकियों को जीडीपी से क्या लेना-देना? उनके लिए तो जीडीपी का अर्थ अलग है। उनकी जीडीपी, यानी जन्नत डेवलपमेंट प्रोग्राम।
देश और सत्ता चलाने के लिए सख्ती और बल, दोनों आपको बराबर मात्रा में चाहिए होता है। शासक अगर हर किसी की सुनने लग जाए और सबके हिसाब से देश चलाने लग जाए, तो फिर उसे कभी गधे पर बैठना पड़ेगा, तो कभी गधे को अपनी पीठ पर लादकर चलना पड़ेगा। लोग तो जाने क्या-क्या कहेंगे, पचास पार्टियां और उनके सैकड़ों सिद्धांत, करोड़ों जनता और उनकी अनगिनत महत्वाकाक्षाएं, जाति-मजहब सबको अपने हिसाब से कुछ न कुछ चाहिए। देश इन सबसे पूछकर नहीं चलाया जाता है। जो एक बड़ी आबादी और देश के भविष्य के लिए अच्छा होता है, शासक को वैसा निर्णय लेना होता है। शेख हसीना वही कर रही थीं। वह चाहतीं, तो कट्टरपंथियों की बातें मान लेतीं, आरक्षण वाली मांग मान लेतीं, लेकिन वह जानती थीं कि भविष्य में क्या सही रहेगा, इसलिए वह अपनी बातों पर अड़ी रहीं। एक अच्छे शासक की यही तो पहचान होती है।
बाकी, जो यह कहते हैं कि जनता जनार्दन होती है और सम्मान के योग्य होती है, ये सब बेकार की बातें हैं। क्रांति करने वाली जनता बस भीड़ होती है, जिनमें ज्यादातर लफंगे, लुच्चे, नशेड़ी और कामचोर लोग होते हैं। जो ढंग की जनता होती है, वह अपने काम-धंधे में फंसी होती है, देश की जीडीपी बढ़ा रही होती है, टैक्स दे रही होती है और जनहितकारी कार्यों में अपनी भागीदारी निभा रही होती है। शेख हसीना बहुत ही मजबूत औरत हैं और उन्होंने जो भी किया, बहुत अच्छा किया। शासन ऐसे ही किया जाता है। उनके शासन में कमी नहीं थी। जो आज उन पर हंस रहे हैं, वे दरअसल दुनिया की हर अराजकता से खुश होते हैं। ऐसे लोगों से बचकर रहिए। ये दुनिया में कहीं भी शांति स्थापित नहीं होने देते, क्योंकि अराजकता से ही इनको ऊर्जा मिलती है।
सिद्धार्थ ताबिश, टिप्पणीकार

इस छात्र क्रांति को हल्के में नहीं ले सकते
देश छोड़कर भाग आईं प्रधानमंत्री शेख हसीना के पिता बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान की प्रतिमा पर हथौड़ा चलता देखकर लोकतांत्रिक मूल्यों में भरोसा रखने वाला कोई भी व्यक्ति आहत हुआ होगा! लेकिन बंगबंधु की विरासत जमींदोज हुई है, तो इसमें उनकी पुत्री का योगदान कैसे भुलाया जा सकता है? शेख हसीना के राज में बांग्लादेश एकदलीय शासन में बदल गया था। खबर 2021 की है। ढाका की एक अदालत में जब कार्टूनिस्ट अहमद कबीर किशोर को पेश किया गया, तो उनके भाई उनकी स्थिति देखकर सदमे में आ गए, क्योंकि कबीर काफी कमजोर और डरे-सहमे दिख रहे थे। हिरासत में उन्हें प्रताड़ित किया गया था। उनका कथित अपराध यह था कि कोरोना महामारी को लेकर उन्होंने स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर कुछ कार्टून सोशल मीडिया पर डाले थे। अदालत ने उनको जमानत देने से छह बार इनकार किया। जमानत मिलने तक किशोर ‘द डिजिटल सिक्योरिटी ऐक्ट’(डीएसए) के तहत दस महीने जेल में बिता चुके थे। 
यह कहानी सिर्फ किशोर की नहीं है। बांग्लादेश में संपादकों और सिविल सोसायटी के कार्यकर्ताओं के विरोध के बावजूद अक्तूबर 2018 में डीएसए लागू किया गया। आलोचकों का कहना है कि असहमति की आवाज और सरकार की आलोचना को दबाने के लिए इस कानून का बेजा इस्तेमाल किया जा रहा है। मीडिया पर नजर रखने वाली ब्रिटेन स्थित संस्था आर्टिकल-19 के मुताबिक, साल 2020 में बांग्लादेश में डीएसए कानून के तहत 312 लोगों पर मुकदमा चलाया गया, जिनमें 70 पत्रकार शामिल थे।
सवाल यह भी है कि लोकतांत्रिक मूल्यों की पैरोकार कही जाने वाली शेख हसीना के चौथी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद वहां लोकतंत्र कितना महफूज रह गया था? अमेरिका, इंग्लैंड समेत तमाम पश्चिमी देशों ने 2024 के चुनाव की निष्पक्षता को लेकर सवाल खड़े किए थे। मानवाधिकारों का उल्लंघन और प्रेस की आजादी खत्म करने के लिए हसीना सरकार की तीखी आलोचना की थी। यह सब जब हो रहा था, तब बांग्लादेश की आर्थिक प्रगति और जीडीपी का डंका बजाया जा रहा था। यह डंका इतना तेज बज रहा था कि भीषण गरीबी, चौड़ी होती असमानता की खाई, सत्ता संरक्षित भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ रही आवाजें दब गईं। शेख हसीना के खिलाफ सुलग रही चिनगारी जब छात्र-युवा आंदोलन के रूप में भड़की, तब उसमें कट्टरपंथी ताकतों की घुसपैठ रोक पाना मुश्किल हो गया! सिर्फ इसी आधार पर बांग्लादेश के छात्र आंदोलन को खारिज नहीं किया जा सकता है। इसका दूरगामी असर पड़ेगा।
हेमंत कुमार, टिप्पणीकार