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शिक्षकों को मिलता पूरा मान-सम्मान

शिक्षकों का मान-सम्मान अब भी पुराने जैसा ही है। उनको आज भी उतनी ही इज्जत मिलती है, जितनी पहले के समय में मिला करती थी। इसकी ठोस वजह है। दरअसल, शिक्षक आज भी हमारे अच्छे दोस्त माने जाते हैं...

शिक्षकों को मिलता पूरा मान-सम्मान
Pankaj Tomarहिन्दुस्तानWed, 04 Sep 2024 10:51 PM
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शिक्षकों का मान-सम्मान अब भी पुराने जैसा ही है। उनको आज भी उतनी ही इज्जत मिलती है, जितनी पहले के समय में मिला करती थी। इसकी ठोस वजह है। दरअसल, शिक्षक आज भी हमारे अच्छे दोस्त माने जाते हैं और वे हमें निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। उनके बिना हमारा जीवन कुछ भी नहीं है। शिक्षक को राष्ट्र-निर्माता कहा जा सकता है, जो बच्चों को सही ज्ञान देकर उनके व्यक्तित्व का विकास कर उनको जीवन में सही मार्ग पर ले जाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं। वे सही और गलत में फर्क करना सिखाते हैं और बच्चों में तर्क की क्षमता विकसित करते हैं। शिक्षक की यही क्षमता उनको अन्य तमाम लोगों से अलग बनाती है। वाकई में, एक शिक्षक ही वह प्रेरक होता है, जो अपने शिष्यों को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों में शुमार कर सकता है। शिक्षकों के बिना मानव-जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
कुछ लोग तर्क देते हैं कि शिक्षक अब कारोबारी बन गए हैं, यानी पठन-पाठन अब उनका कर्म नहीं रहा, बल्कि कारोबार बन गया है और वे अपने इस पेशे से अकूत पैसा कमाना चाहते हैं, जबकि पूर्व में ऐसा नहीं था। पहले के दिनों में शिक्षक बेशक विपन्न होते थे, लेकिन वे नाममात्र दक्षिणा लिया करते, बेवजह पैसों की कोई मांग नहीं करते। हालांकि, मैं इससे सहमत नहीं हूं। आज जब भौतिकवाद का इतना बोलबाला है, तब शिक्षक क्यों विपन्न रहें? फिर भी हमारे आसपास ऐसे कई शिक्षक दिख जाते हैं, जिनके लिए शिक्षण ही एकमात्र कर्म है। वे बच्चों के प्रति पूरे ईमानदार होते हैं और लगन के साथ उनको पढ़ाते हैं। हां, कुछ शिक्षकों का आचरण मानक के अनुरूप नहीं होता, पर उनको हमें अपवाद मानना चाहिए। समग्रता में शिक्षकों का सद्चरित्र ही दिखता है, जिसका नतीजा है कि कई भारतीय शिक्षक विदेश तक में अपने अध्ययन-अध्यापन से छात्र-छात्राओं के चहेते बने हुए हैं।
अलबत्ता, मैं तो यह भी मानती हूं कि शिक्षकों का मान-सम्मान पहले की तुलना में बढ़ा है। सरकार भी उनको सम्मानित करती है और राष्ट्रपति पुरस्कार जैसे सम्मान से नवाजती है। आज के समय में बदलती इंसानी जरूरतों को देखते हुए भी जब शिक्षक कठिन परिस्थितियों के बीच अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं, तो उनके प्रति श्रद्धा काफी बढ़ जाती है। उम्मीद है, शिक्षकगण यूं ही हम सबको ज्ञान की रोशनी बांटते रहेंगे। अगर हम उनकी बातों पर अमल कर सकें, तो वह दिन दूर नहीं, जब भारत फिर से विश्वगुरु का रुतबा हासिल कर सकेगा। शिक्षक दिवस पर सभी शिक्षकों का अभिवादन!
सुमन सिंह, टिप्पणीकार

अब उनकी वह इज्जत नहीं बची
आज भी हम निस्संदेह शिक्षक दिवस मनाते हैं, पर कुछ दशक पूर्व समाज में शिक्षकों का जो मान-सम्मान होता था, वह शायद अब नहीं रहा। इसकी अनेक वजह है, जिसमें शिक्षा का व्यावसायीकरण प्रमुख है। ऐसे-ऐसे लोग इस कारोबार से जुड़ चुके हैं, जिनका खुद का अपने जीवन-काल में शिक्षा से कभी कोई सरोकार ही नहीं रहा। वह महज कारोबार के ख्याल से इसमें आए हैं, जबकि शिक्षा में सेवा भावना की जरूरत है। दिक्कत है कि जो शिक्षक बन रहे हैं, उनमें इस भावना का घोर अभाव है। वे सिर्फ अपनी बेरोजगारी दूर करने आए हैं। यही कारण है कि पहले की तुलना में समाज के शिक्षण संस्थानों में योगदान की प्रवृत्ति घटी है। स्वाधीनता के बाद से लेकर साठ-सत्तर के दशक तक अनेक स्कूल-कॉलेज स्थापित हुए, जिनमें समाज के धनी-मानी लोगों का भरपूर योगदान रहा करता था। मगर अब तो ऐसे संस्थान बन रहे हैं, जो धनाढ्यों की मिल्कियत जैसे हैं। इनमें कार्यरत कर्मी सहित शिक्षकों की भूमिका कैसी होती होगी, यह समझना कठिन नहीं है। आज समाज में कितने ऐसे लोग हैं, जो सक्षम हैं धन और शैक्षणिक उपलब्धि के मामले में और वे नि:शुल्क पढ़ाने के इच्छुक भी हैं? नई शिक्षा नीति में हर तरह के वादे व दावे किए गए हैं, लेकिन कोई ऐसी तरकीब नहीं दिखती कि इसमें वही लोग आएं, जिनकी वास्तव में अध्ययन-अध्यापन में अभिरुचि हो। तभी शिक्षकों का सम्मान बहाल होगा, यकीन मानिए। 
मुकेश कुमार मनन, टिप्पणीकार


घटता रुतबा
एक समय था, जब शिक्षकों के प्रति छात्रों के मन में इतना आदर होता था कि यदि सामने से कोई शिक्षक आता दिखाई दे, तो छात्र रास्ता बदल लेते थे, लेकिन अब तो वे तनकर बगल से गुजर जाते हैं। उन्हें शिक्षकों के मान-सम्मान से कोई मतलब ही नहीं होता। कुछ यही हाल अभिभावकों का भी अब हो गया है। वे शिक्षकों से सिर्फ बच्चों की पढ़ाई तक ही वास्ता रखना चाहते हैं, जबकि पहले के जमाने में शिक्षक भी घर के सदस्य माने जाते थे और सभी दुख-दर्द उनसे साझा किए जाते थे। इन्हीं सबको देखकर यह कहने में हमें संकोच नहीं होना चाहिए कि शिक्षकों का कद अब घट गया है। वे समाज के आम नागरिक की तरह देखे जाने लगे हैं। हालांकि, इनमें दोष कुछ हद तक शिक्षकों का भी है। उन्होंने अपने पांव पर खुद कुल्हाड़ी मारी है। यही कारण है कि वे छात्र-छात्राओं की नजर में गिरते चले गए हैं। हां, अपवादस्वरूप कुछ शिक्षकों की काफी इज्जत होती है, लेकिन बहुतायत में शिक्षक अब छात्रों के लिए शायद ही आदर्श रह गए हैं। इसका भारी नुकसान पठन-पाठन के माहौल पर पड़ा है। 
रुचि शर्मा, टिप्पणीकार