हमारे गांव में नए साल का कोई उत्सव नहीं होता या होता भी होगा, तो बस कुछेक पुरुषों के लिए होता होगा, जो ठेके पर जाकर दारू पी लेंगे, बाजार में हुल्लड़ कर लेंगे, कहीं खेत-मचान के पास चोखा-बाटी या नॉनवेज बना-खा लेंगे, पर तब भी रात के दस बजते-बजते घर लौट आएंगे। नई उम्र के लड़के-लड़कियां आधी रात को ‘फॉरवर्डेड मैसेज’ भेजकर नए साल के आने की रस्म अदा करेंगे... दरअसल, बाजार की पैठ अभी गांवों में कम-कम है, क्योंकि यह समाज अभी बंद समाज है। भले ही यह खुलने-खिलने को तड़फड़ा रहा है... बाकी खेती-किसानी करने वालों, गृहस्थी में रमी-खपी औरतों, और हम जैसे उकताए, उलझे लोगों के लिए हर दिन एक सा होता है।
न बीते बरस से कोई शिकवा, न नए बरस की उम्मीदें, यही हमारा नया साल होता है... हमारी जिंदगियां ‘स्लो मोशन’ वाली फिल्में हैं, जिनमें एक्शन भले कम हो, पर इमोशन खूब होता है। बस एक तसल्ली रही कि कोरोना से पूरी भागती-दौड़ती दुनिया ठप हो गई थी, जैसे कोई पॉज का बटन गलती से दब गया हो, तब भी हमारी फिल्म उसी ‘स्लो मोशन’ में आराम से चलती रही। इस ठहराव की आदत ने हमें बचाए रखा। पिछले बरस जो और जितना मिला, उसका शुक्रिया... इस साल जो मिलेगा, वह सिर-माथे।
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