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है कोई जवाब

साल 2014 में जब मुझे कैंसर हुआ था, तब उसकी सर्जरी ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस (एम्स) के कैंसर विभाग में होनी थी। ऑपरेशन से पहले मुझे तीन यूनिट ब्लड का इंतजाम करने के लिए कहा गया। यह संदेश...

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सुभाष अखिल की फेसबुक वॉल सेSun, 05 Apr 2020 09:46 PM
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साल 2014 में जब मुझे कैंसर हुआ था, तब उसकी सर्जरी ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस (एम्स) के कैंसर विभाग में होनी थी। ऑपरेशन से पहले मुझे तीन यूनिट ब्लड का इंतजाम करने के लिए कहा गया। यह संदेश मेरे प्रिय साढ़ू भाई वेदजी को मिला, तो उन्होंने मुझे सूचित किए बिना ही ब्लड का प्रबंध कर लिया। मुझे कुछ नहीं बताया गया। सर्जरी के बाद जो डॉक्यूमेंट्स मुझे लौटाए गए, उनमें ‘ब्लड डोनर’ के वे दो कार्ड भी थे। एक कार्ड तो भाई वेदजी का ही था, जिनका ब्लड गु्रप एबी+ था, जबकि मेरा ब्लड गु्रप मेरी सोच की तरह ही बी+ था। सो उसके एवज में मुझे मेरे ग्रुप का ब्लड मिल गया।
दूसरा कार्ड, वेदजी के एक मित्र का था, जिनका ब्लड ग्रुप ओ+ था, जो कि ‘यूनिवर्सल डोनर’ ग्रुप में आता है। लिहाजा कोई कठिनाई नहीं थी। सर्जरी ठीक होने के बाद जब मैंने अपने इन मित्र का नाम देखा, तो मेरी आंखें भर आईं। कार्ड पर नाम दर्ज था- तुफैल अहमद।
आज 2020 में भी वे ‘डोनर कार्ड’ मैंने संभालकर रखे हैं। क्या खून के इस रिश्ते को किसी धर्म या मजहबी दायरे में बांधा जा सकता है? आज के इस दमघोंटू माहौल में यह सवाल बड़ी शिद्दत से सिर उठाए खड़ा है।
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