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आंदोलनों की लहर

भारत से लेकर यूरोप तक उभरते आंदोलनों में एक बात कॉमन है- कॉरपोरेट हितैषी बन चुके सिस्टम की मुखालफत।... यह बात एक विश्वव्यापी समझ के रूप में विकसित हो रही है कि सिस्टम गलत दिशा में और गलत लोगों के...

 आंदोलनों की लहर
हेमंत कुमार झा की फेसबुक वॉल सेSun, 29 Nov 2020 11:35 PM
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भारत से लेकर यूरोप तक उभरते आंदोलनों में एक बात कॉमन है- कॉरपोरेट हितैषी बन चुके सिस्टम की मुखालफत।... यह बात एक विश्वव्यापी समझ के रूप में विकसित हो रही है कि सिस्टम गलत दिशा में और गलत लोगों के हाथों में चला गया है और अपने लिए, अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए इस सिस्टम से जूझना ही होगा। यूरोप के कुछ देशों, जैसे फ्रांस में उदाहरण है कि वहां चल रहे आंदोलनों में मध्य वर्ग नेतृत्व दे रहा है, लेकिन निम्न वर्ग की भी व्यापक भागीदारी है। भारत में इस एकजुटता का अभाव है। नैतिक संकटों से जूझता भारतीय मध्य वर्ग फिलहाल इस स्थिति में नहीं कि वह विशाल वंचित तबके को वैचारिक नेतृत्व दे सके, पर हालिया हड़ताल के दृश्य उम्मीद जगाते हैं कि यह फासला घट रहा है। 
अधिक दिन नहीं बीते, जब उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की सड़कें पेंशन की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे सरकारी कर्मियों से पट गई थीं और भीड़ को नियंत्रित करने के लिए नियुक्त पुलिस वाले भी मुंह पर कपडे़ बांधकर इन प्रदर्शनों में शामिल हो गए थे। ऐसे दृश्य अब और नजर आएंगे। समय बदल रहा है और हर वह चीज खारिज होने के मुकाम पर धकेले जाने के खतरे से जूझ रही है, जो जनता के व्यापक हितों के खिलाफ है। चाहे वे नेता हों, नीतियां हों या तंत्र हो।
 

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