अब चिट्ठी नहीं एसएमएस
एक जमाना था, जब हमारे घर ढेरों चिट्ठियां आती थीं। सब उर्दू में। पिताजी बताते, कहां से किसकी चिट्ठी है? उर्दू के कुछ दस्तखत तो हमारे जहन में बसे थे। जैसे, फिराक गोरखपुरी, राजेंद्र सिंह बेदी, कृष्ण...
एक जमाना था, जब हमारे घर ढेरों चिट्ठियां आती थीं। सब उर्दू में। पिताजी बताते, कहां से किसकी चिट्ठी है? उर्दू के कुछ दस्तखत तो हमारे जहन में बसे थे। जैसे, फिराक गोरखपुरी, राजेंद्र सिंह बेदी, कृष्ण चंदर, साहिर लुधियानवी आदि। सुख-दुख, पास-फेल, जनम-मरण सबका सहारा एक अदद चिट्ठी थी। बड़े-बड़े महापुरुषों के खतों को तो पाठकों ने बहुत संभालकर रखा। उन खतों के संग्रह छपे। साहित्य में चिट्ठियों की बहुत अहमियत रही। चिट्ठी ने ही बताया कि लेखक किस मानसिक यंत्रणा के दौर से गुजरा है? देश-काल और उसके परिवार की परिस्थिति का भी पता चला। इन चिट्ठियों की बदौलत फिल्मों में बड़े-बड़े उलटफेर हुए हैं। चिट्ठी महबूबा के हाथ न लगकर सहेली या पिताजी के हाथ लग गई। 1964 की सुपरहिट संगम में चिट्ठी ही विलेन बनी। चिट्ठी को लेकर कई मशहूर गाने लिखे गए। मगर अब चिट्ठी नहीं, एसएमएस आता है। हम बावरे होकर पोस्टमैन के पीछे नहीं भागते। खूने-जिगर से भी नहीं लिखी जाती चिट्ठियां। मतलब यह नहीं कि दुनिया से मोहब्बत खत्म हो गई है, लेकिन खत की शक्ल में वह दस्तावेजी नहीं रही। हालांकि जब तक सरकारें हैं, रोज हजारों-लाखों चिट्ठियां लिखी जाती रहेंगी। यह बात अलग है कि ज्यादातर डस्टबिन के हवाले हो जाती हैं।