उपनिषद से मार्क्सवाद तक
बचपन में रामायण और महाभारत को दर्जनों बार पढ़ा था। मुझे लगता है कि ये महाकाव्य राष्ट्रीय एकीकरण का काम करते हैं। महाकाव्य एक विधा के तौर पर समाज को एक राष्ट्र के रूप में बांधने का काम करता...
बचपन में रामायण और महाभारत को दर्जनों बार पढ़ा था। मुझे लगता है कि ये महाकाव्य राष्ट्रीय एकीकरण का काम करते हैं। महाकाव्य एक विधा के तौर पर समाज को एक राष्ट्र के रूप में बांधने का काम करता है। आम जनता को एकसूत्र में बांधने का यह परंपरागत वैचारिक-कलात्मक साहित्य है। बचपन में उपनिषदों के पठन-पाठन ने स्वतंत्रता से प्रेम करना सिखाया, बाद में मार्क्सवाद के अध्ययन ने इसे गाढ़ा बनाया। उपनिषदों में एक सवाल है, जिस पर बहुत विचार किया गया है। वह है, विश्व क्या है, वह कहां से पैदा होता है और कहां जाता है? उत्तर है- स्वतंत्रता से पैदा होता है, स्वतंत्रता में ही टिका है व स्वतंत्रता में ही विलय है।
बचपन में यही सीखा कि उपनिषद हमारे धर्म ग्रंथ नहीं, दार्शनिक ग्रंथ हैं। वे दार्शनिक परंपरा के अंग हैं। इसने ज्ञान परंपरा व धार्मिक परंपराओं में अंतर करने का नजरिया विकसित किया। उपनिषदों से दूसरी बात यह सीखी कि जब भी बोलो, निष्कपट भाव से बोलो। उपनिषदों की भाषा का यह मूलाधार है। मार्क्सवाद से मैंने अन्य के प्रति प्रतिबद्धता का सूत्र सीखा। मार्क्सवाद के असर ने मुझे ‘स्व’ की बजाय ‘अन्य’ पर ध्यान देने की प्रेरणा दी। अच्छा मार्क्सवादी वह है, जो हमेशा विकल्पों पर नजर रखे, समाज बदलना है, नजरिया बदलना है, तो निरंतर विकल्पों की खोज करनी चाहिए।