याद आते हैं गिर्दा
उस साल, यानी 2010 में अचानक एक याद बन गया गिर्दा (गिरीश चंद्र तिवारी)। इतवार, 22 अगस्त का दिन था। 12 बजे के आसपास मोबाइल फोन कुनमुनाया। देखा, लखनऊ से नवीन का एक संक्षिप्त एसएमएस था- ‘हमारे...
उस साल, यानी 2010 में अचानक एक याद बन गया गिर्दा (गिरीश चंद्र तिवारी)। इतवार, 22 अगस्त का दिन था। 12 बजे के आसपास मोबाइल फोन कुनमुनाया। देखा, लखनऊ से नवीन का एक संक्षिप्त एसएमएस था- ‘हमारे गिर्दा चल दिए इस दुनिया से। अभी थोड़ी देर पहले आखिरी सांस ली।’...पढ़कर दिल धक्क से रह गया और मन सोच में डूब गया। अभी सोच में डूबा ही था कि सामने खम्म से हंसता हुआ गिर्दा आ खड़ा हुआ। वही कुरता-वास्कट, वही पैंट, सिर पर वही गरम ऊन की टोपी और कंधे में लटका वही झोला। मन ने पूछा, ‘अरे गिर्दा?’
गिर्दा मुस्कराता रहा। मैं हैरान, परेशान। ‘गिर्दा, आप? आप तो चल दिए सुना, अभी-अभी खबर मिली थी मुझे इसकी। एसएमएस से।’
‘जरूर नब्बू ने भेजा होगा, मुझे पता है। जाने क्यों मेरी इतनी फिकर करता है। इतना मोह रखता है। उससे तो मैं लखनऊ में ही कह आया था, मुझे जो होता है कुछ! मान लो कुछ हो भी गया, तब भी मैं यहीं रहूंगा। लेकिन, अपने समय में। और देखो देवेनदा, अपने समय में मैं यहीं हूं। हूं कि नहीं?’
गिर्दा अपने उसी खास अंदाज में मुस्कराते हुए आगे बोला, ‘भला कहां जाता हूं मैं? तुम लोगों के बीच में ही तो रहूंगा।’