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आलोचना के केंद्र में कुछ राजभवन

पिछले हफ्ते तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि ने एम के स्टालिन मंत्रिमंडल के दागी सदस्य सेंथिल बालाजी को बर्खास्त करने का आदेश जारी करके राज्य को एक सांविधानिक संकट में डाल दिया था। राजभवन से जारी एक...

आलोचना के केंद्र में कुछ राजभवन
Pankaj Tomarएस. श्रीनिवासन, वरिष्ठ पत्रकारMon, 03 Jul 2023 10:42 PM
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पिछले हफ्ते तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि ने एम के स्टालिन मंत्रिमंडल के दागी सदस्य सेंथिल बालाजी को बर्खास्त करने का आदेश जारी करके राज्य को एक सांविधानिक संकट में डाल दिया था। राजभवन से जारी एक संक्षिप्त प्रेस-विज्ञप्ति में कहा गया था, ‘राज्यपाल ने उन्हें तत्काल प्रभाव से मंत्रिपरिषद से बर्खास्त कर दिया है’। हालांकि, कुछ घंटों के भीतर ही, करीब आधी रात के आसपास केंद्रीय गृह मंत्रालय की सलाह का हवाला देकर उन्होंने अपने ही आदेश को पलट दिया। इस तरह, जिस सांविधानिक संकट को उन्होंने खुद ही पैदा किया था, उसे टालने में वह सफल रहे। मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने तुरंत तीखी प्रतिक्रिया दी थी और राज्यपाल की कार्रवाई को यह कहते हुए मानने से इनकार कर दिया था कि गवर्नर के पास ऐसी कोई शक्ति है ही नहीं। उन्होंने इसके खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाने की बात भी कही।
पिछले साल करीब इसी समय केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने भी ‘बाहरी लोगों’ से जुड़ी टिप्पणी को लेकर राज्य के वित्त मंत्री के एन बालगोपाल से उनका मंत्रालय छीनने को कहा था, जिसने राज्य को सांविधानिक संकट के मुहाने पर ला खड़ा किया था। हालांकि, राज्यपाल रवि की तरह उनको भी असहज होना पड़ा, क्योंकि मुख्यमंत्री पी विजयन ने उनकी बात मानने से इनकार करते हुए दोटूक कह दिया था कि बालगोपाल अपने पद पर बने रहेंगे। 
यह कोई पहला मौका नहीं है, जब राज्यपाल अपनी शक्ति बढ़ाने की कोशिश में खुद तमाशा बन गए हों। इससे पहले पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, मेघालय जैसे तमाम विपक्ष-शासित सूबों के राज्यपाल ऐसे कृत्यों में शामिल रहे हैं, जो संविधान में निहित उनकी शक्तियों के विरुद्ध थे। हालांकि, इतिहास के पन्नों को यदि हम पलटेंगे, तो यह पता चलेगा कि भाजपा के केंद्र में आने से पहले के दशकों में कांग्रेस ने अपने शासन के दौरान राजनीतिक मंशा पूरी करने के लिए राज्यपालों का दुरुपयोग किया था। जहां कांग्रेस-राज अनुच्छेद 365 के जरिये राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिए बदनाम रहा, तो वहीं त्रिशंकु विधानसभा होने अथवा प्रतिकूल जनादेश की सूरत में अपना मुख्यमंत्री बनाने के लिए या विपक्षी दलों की सरकार को परेशान करने के लिए भाजपा सरकारें भी राजभवनों का इस्तेमाल करती रही हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी जिस राज्य में भी राजनीतिक रूप से कमजोर है, वहां सत्तारूढ़ दल पर हमलावर होकर वह अपनी स्थिति मजबूत बनाने के लिए राज्यपाल का इस्तेमाल कर रही है। इसमें केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्रवाई को भी विरोधी पार्टियां सहायक बता रही हैं। 
सेंथिल बालाजी का मामला काफी समय से चल रहा है, और यह स्पष्ट रूप से ‘्क्रिरप्टेड’ लग रहा है। इसमें सबसे पहले, भाजपा की राज्य इकाई ने अपने प्रमुख के अन्नामलाई के नेतृत्व में बालाजी के खिलाफ एक आक्रामक अभियान चलाया और राज्यपाल को आरोप-पत्र सौंपा। इसके बाद मंत्री के कार्यालयों और घर पर इनकम टैक्स व ईडी की छापेमारी हुई, और फिर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर मंत्री को हटाने की बात कही, लेकिन मुख्यमंत्री ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया। बाद में, कई द्रमुक नेताओं ने सोशल मीडिया पर केंद्र पर पलटवार करते हुए लिखा, ‘दुर्भावनापूर्ण गिरफ्तारी’ और ‘महज आरोप’ किसी भी मंत्री की बर्खास्तगी के आधार नहीं हो सकते। 
सभी ने सोचा कि विवाद शांत हो जाएगा, क्योंकि इस मुद्दे पर एक मामला पहले से ही मद्रास हाईकोर्ट में लंबित था, लेकिन राज्यपाल ने जल्दबाजी दिखा दी, जिससे आसन्न संकट पैदा हो गया। चूंकि राज्यपाल ने एक विवादास्पद कदम उठाया, इसलिए अब उनकी वापसी की मांग द्रमुक और उसके सहयोगी दल कर रहे हैं। संविधान-विशेषज्ञों की मानें, तो यही लगता है कि राज्यपाल ने अपनी सीमा लांघी है। राज्यपाल खान और रवि, दोनों अपने कदमों को सही साबित करने के लिए संविधान की गलत व्याख्या कर रहे थे। लगता है, एन रवि स्पष्ट तौर पर राज्यपाल की ब्रिटिश कालीन ताकतों के मुताबिक काम कर रहे हैं, जो अब अस्तित्व में नहीं हैं। वे दोनों इस सांविधानिक व्यवस्था को नजरंदाज करते दिखे कि राज्यपाल स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकते और उनको मंत्रिपरिषद् की सलाह व सहायता के अनुसार ही काम करना चाहिए। वह सिर्फ मुख्यमंत्री की नियुक्ति कर सकते हैं, मंत्रिपरिषद् का गठन तो मुख्यमंत्री द्वारा ही किया जाएगा। 
राज्यपाल एन रवि के ‘वायसराय सरीखे व्यवहार’ पर तमिलनाडु के राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया इतनी तीखी रही कि उनको अपना आदेश वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़़ा। मगर इसकी संभावना नहीं है कि वह झुकेंगे, क्योंकि वह विवादास्पद कदम उठाते रहे हैं। इससे केंद्र और राज्य के आपसी संबंधों पर भी बुनियादी सवाल उठते हैं। जैसे-जैसे देश 2024 के आम चुनाव की ओर बढ़ रहा है, आग शांत होने के बजाय और सुलग सकती है। इससे विपक्ष-शासित राज्यों के इस आरोपों को भी बल मिलता है कि राजभवन केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के दफ्तर सरीखे बन गए हैं। ऐसे मामलों ने फिर यह मांग तेज कर दी है कि राज्यपाल के पद को ही अब खत्म कर देना चाहिए। मगर ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि संविधान इस पद की वकालत करता है, जो केंद्र और राज्य के बीच एक कड़ी के रूप में काम करेगा।
सबसे अच्छा विकल्प तो यही है कि ऐसे राज्यपाल नियुक्त किए जाने चाहिए, जो निष्पक्ष रूप से काम करें। राज्यपाल के चयन को लेकर विभिन्न आयोगों ने कई सिफारिशें की हैं। एक सिफारिश यह भी थी कि सक्रिय राजनीति में रहने वाले व्यक्ति को यह पद नहीं देना चाहिए। यह भी सुझाव आया कि उन अधिकारियों को पुरस्कार के रूप में राज्यपाल नहीं बनाना चाहिए, जो सेवानिवृत्ति के कगार पर हों। 
हालांकि, इन तमाम सिफारिशों को लगातार नजरंदाज किया जाता रहा है। अलबत्ता, केंद्र को पुलिस और खुफिया अधिकारियों की नियुक्ति का भी कोई पछतावा नहीं रहा, जो सत्ता में बैठी पार्टी की राजनीतिक दिशा को आगे बढ़ाते रहे हैं। सांविधानिक बारीकियों में न भी जाएं, तब भी सामंजस्य की जिस भावना और राजनीतिक शालीनता की दरकार है, उसकी यहां साफ-साफ कमी दिख रही है। ऐसा नहीं है कि राज्य सरकार ने हमेशा मर्यादा का पालन किया हो, लेकिन लोकतंत्र का तकाजा तो यही है कि केंद्र को संतुलन बनाना सीखना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)