विकास और रोजगार की जोड़िए कड़ी
चुनाव के बाद ‘सीएसडीएस’ द्वारा किया गया सर्वे बताता है कि आर्थिक हितों ने, खासकर देश की बड़ी आबादी के सामने मुंह बाए खड़ी बेरोजगारी, महंगाई और गरीबी ने 2024 के आम चुनाव में मतदाताओं को प्रभावित करने...
चुनाव के बाद ‘सीएसडीएस’ द्वारा किया गया सर्वे बताता है कि आर्थिक हितों ने, खासकर देश की बड़ी आबादी के सामने मुंह बाए खड़ी बेरोजगारी, महंगाई और गरीबी ने 2024 के आम चुनाव में मतदाताओं को प्रभावित करने में अहम भूमिका निभाई। यह उन लोगों के लिए आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए, जो अर्थव्यवस्था पर करीबी नजर रखे हुए हैं।
आंकड़े बताते हैं कि वित्त वर्ष 24 में आठ फीसदी की मजबूत आर्थिक वृद्धि के बावजूद निजी उपभोग व्यय (उपभोग मांग) में महज चार प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। यह मूलत: अनौपचारिक क्षेत्र को मिले गंभीर झटकों का नतीजा है, जहां से भारत का बड़ा हिस्सा रोजी-रोटी कमाता है। मैन्यूफैक्चरिंग कंपनियों की संख्या में भी धीमी वृद्धि हुई है और 2015-16 से 2022-23 के बीच रोजगार में भारी गिरावट आई है। इसी तरह, कृषि क्षेत्र में, जिसे कम उत्पादकता का क्षेत्र माना जाता है, रोजगार बढ़ा है, जो 2018-19 की 42.5 फीसदी से बढ़कर 2022-23 में 45.8 प्रतिशत हो गया। वास्तविक मजदूरी भी थम सी गई है, यहां तक कि कुछ समय के लिए इसमें सिकुड़न भी देखी गई। दिक्कत यह भी है कि शिक्षित नौजवानों की एक बड़ी संख्या को औपचारिक क्षेत्र में जगह नहीं मिल पा रही। नतीजतन, उनमें बेरोजगारी काफी बढ़ गई है, जो 2022 में कुल बेरोजगार गैर-छात्र नौजवानों का लगभग आधा हिस्सा है। जाहिर है, भारत में ढांचागत सुधार ठहर गया है और आम चुनाव में इसने अपनी भूमिका निभाई है।
इसी सूरतेहाल में 23 जुलाई को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण नई सरकार का पूर्ण बजट पेश करेंगी। साफ है, स्थिर ढांचागत सुधार व रोजगार संकट, दो अहम मुद्दे हैं और वित्त मंत्री जो रास्ता चुनेंगी, वह इस बात पर निर्भर करेगा कि भाजपा इस जनादेश का क्या अर्थ निकालती है? आशा तो यही हैकि पार्टी ने समझ लिया होगा कि आर्थिक नीति में ढांचागत सुधार की दरकार है। दरअसल, रोजगार संकट उस आर्थिक विकास मॉडल की देन है, जिसे भारत ने उदारीकरण के समय अपनाया था और यह पिछले दशक की गलतियों के कारण और बढ़ गया। इस मॉडल में अकुशल विनिर्माण क्षेत्र की अनदेखी की गई है और तुलनात्मक रूप से बहुत छोटे, पर उच्च कुशल सेवा क्षेत्र के बूते विकास का सपना देखा गया है। इससे विकास और रोजगार के बीच की कड़ी टूट गई। इससे भी गंभीर बात यह है कि तरक्की के बावजूद गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक क्षेत्रों में निवेश घटा है।
दुर्भाग्य से, अर्थव्यवस्था की इन वास्तविकताओं की अनदेखी करना एक फैशन सा बन गया है। तर्क दिया जाता है कि मैन्यूफैक्चरिंग को बढ़ाने व उत्पादकता सुधारने के लिए जरूरी फैक्टरी-बाजार सुधार को गति देने में स्वार्थ-प्रेरित राजनीतिक हठ बाधक बन रहा है। लिहाजा, हमें बाजार सुधारने के लिए सख्त फैसले करने वाला नेता चाहिए। बतौर प्रत्याशी नरेंद्र मोदी को एक दशक पहले इसी भावना का फायदा मिला था।
मगर पिछले एक दशक का यदि कोई सबक सीखा जा सकता है, तो वह यह है कि वास्तविक व प्रतिस्पद्र्धी बाजार के निर्माण के लिए ढांचागत विषमताओं को दूर करना जरूरी है। वास्तव में, ये असमानताएं ही हैं, जो राज्य के दखल को अनिवार्य बनाती हैं, फिर चाहे वह स्थानीय बुनियादी ढांचे (सिर्फ हाईवे नहीं, बल्कि गांवों को शहरों से जोड़ने वाली सड़कें भी, सार्वजनिक परिवहन और बाजार) के रूप में हो या आपूर्ति शृंखलाओं को प्रोत्साहित करने के रूप में या मोल-तोल की उनकी शक्ति बढ़ाने के रूप में। मगर राज्य विनियमन के जरिये इससे बचने के प्रयास करता रहा है।
कृषि कानूनों की ही बात करें, तो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर गारंटी की मांग व विरोध-प्रदर्शन मूलत: बाजार की विसंगतियों को बनाए रखने के हिमायती लोगों के कारण नहीं हुआ, बल्कि यह इसलिए हुआ, क्योंकि इन ‘सुधारों’ ने बाजार के विकास, मूल्य समर्थन और जोखिम प्रबंधन आदि के लिए वैकल्पिक तंत्र का ठोस आश्वासन नहीं दिया, ताकि किसानों की रक्षा हो सके। इसके मुकाबले बाजार जब-जब अनुकूल हुआ, सरकारी हस्तक्षेप ने कारोबार की शर्तों को किसानों के लिए प्रतिकूल बना दिया, फिर चाहे निर्यात प्रतिबंध से कीमतों को कम रखने की कवायद ही क्यों न हो। इस स्थिति में जब यह दिखता हो कि आर्थिक ताकत कुछ लोगों के हाथों में ही सिमटी हुई है, तब यह अकारण नहीं कि औसत भारतीय बाजार सुधार को संदेह की नजर से देखें। इसी कारण, उन्होंने सब्सिडी व गारंटीयुक्त एमएसपी की मांग की।
अनौपचारिक क्षेत्र को लेकर भी इसी तरह की चुनौती है। अनुकूल परिस्थितियां बनाने के बजाय नोटबंदी और जीएसटी जैसी नीतियों के माध्यम से इसे जबरिया औपचारिक बनाने का प्रयास किया गया। मगर ऐसा नहीं हुआ। इसके बजाय, इन नीतियों ने इस क्षेत्र को ही तबाह कर दिया और रही-सही कसर लॉकडाउन ने पूरी कर दी। इससे समाज के सबसे कमजोर तबके के सामने गंभीर संकट खड़ा हो गया और मांग बुरी तरह प्रभावित हुई है।
जाहिर है, इस सबसे पार पाने के लिए ऐसी नीति की दरकार है, जो वास्तव में एक प्रतिस्पद्र्धी बाजार बनाने के लिए भरोसेमंद रास्ता दिखाए। व्यापक विनियमन और गलत हस्तक्षेपों को आगे बढ़ाने के बजाय एक संतुलित और समन्वित रणनीति बनानी होगी, जिसमें बाजार की विफलताओं को समझा जाए और सरकार की तरफ से उचित हस्तक्षेप सुनिश्चित हो सके। निस्संदेह, इसके लिए क्रमिक सुधार की आवश्यकता है, जिसका रास्ता राज्य सरकारों को सशक्त बनाकर, केंद्र-राज्य सहयोग में सुधार लाकर और स्थानीय शासन-व्यवस्था में निवेश बढ़ाकर ही निकाला जा सकता है।
जैसे-जैसे हम बजट के दिन के करीब पहुंच रहे हैं, चर्चा गरम हो रही है कि रोजगार सृजन के लिए प्रोत्साहन योजना से लेकर कौशल विकास तक पर गौर किया जा सकता है। मगर ये विचार कितने भी समझदारी भरे क्यों हों, जब तक ढांचागत गड़बड़ियां दूर नहीं की जाएंगी, ये नाकाफी ही साबित होंगे। वास्तव में, भारत को एक ऐसी रोजगार रणनीति की जरूरत है, जिसमें अर्थव्यवस्था को समग्रता में देखा जाए, आंकड़ों को महत्व दिया जाए, विषमताओं को दूर किया जाए और समाधान की राह तलाशी जाए। ऐसी रोजगार रणनीति पर बहस के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाया जाना चाहिए। क्या यह एक ख्याली पुलाव है? शायद हां। मगर यह काफी जरूरी है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)