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हिंदी से दूरी

आधुनिक होने के लिए हमने बहुत कुछ छोड़ने के साथ-साथ अपनी मूल भाषा भी छोड़ दी है। अब माता-पिता अपने बच्चों को सबसे पहले अंग्रेजी का ज्ञान देना जरूरी समझते हैं। कहीं उनका बच्चा अंग्रेजी में बाकी बच्चों से...

हिंदी से दूरी
हिन्दुस्तानThu, 29 Nov 2018 09:22 PM
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आधुनिक होने के लिए हमने बहुत कुछ छोड़ने के साथ-साथ अपनी मूल भाषा भी छोड़ दी है। अब माता-पिता अपने बच्चों को सबसे पहले अंग्रेजी का ज्ञान देना जरूरी समझते हैं। कहीं उनका बच्चा अंग्रेजी में बाकी बच्चों से पीछे न रह जाए? बच्चे भी अंग्रेजी के साथ-साथ बाकी भाषाएं जैसे फ्रेंच, स्पेनिश आदि सीखते हैं, और हिंदी का ज्ञान पाने में असमर्थ रह जाते हैं। नौजवानों को भी अब हिंदी शब्दों को बोलने में कठिनाई महसूस होने लगी है, और जिन्हें हिंदी आती है, उन्हें सबके सामने उसका प्रयोग करने में शर्मिंदगी महसूस होती है। यहां यह तात्पर्य नहीं है कि बाकी भाषाओं का बहिष्कार करके हिंदी को ही अपनाना चाहिए। एक से अधिक भाषाओं का ज्ञान होना कतई अनुचित नहीं है, लेकिन हिंदी भी तो एक भाषा है। इसे लेकर हमारी सोच संकीर्ण क्यों है?
अदिति गर्ग
gargaditi59@gmail.com
गैर जरूरी मुद्दे
कितना अच्छा होता, यदि सत्ताशीर्ष पर बैठे देश के नेतागण राम, रावण, हनुमान, निषाद राज या सबरी जैसे रामायण के किरदारों की जाति जैसे गैर-जरूरी मसलों पर उलझने की बजाय खस्ताहाल कानून-व्यवस्था, अपराध नियंत्रण, महिला सुरक्षा, अशिक्षा, भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार और दिन-प्रतिदिन अन्नदाताओं द्वारा की जा रही आत्महत्या जैसे बुनियादी व जरूरी मुद्दों पर अपनी बात रखते। मगर ऐसा शायद ही संभव है। नेता होना, जनता से जुड़े अथवा जरूरी मुद्दों पर बात करने की गारंटी थोड़े ही है।
पशुपति झा, ग्रेटर नोएडा
jhapashupati@gmail.com
पीठ पर बोझ
मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय ने बच्चों की पीठ का बोझ कम करने के लिए नई गाइडलाइंस जारी की हैं। इसमें क्लास के आधार पर बच्चों के बस्ते का वजन तय किया गया है। मसलन कक्षा एक और दो के लिए बस्ते का वजन डेढ़ किलो तय किया गया है। तीसरी से पांचवीं क्लास के लिए यह दो से तीन किलो है। छठी और सातवीं क्लास के लिए चार किलो और आठवीं-नौवीं के लिए साढ़े चार किलो और दसवीं के लिए पांच किलो वजन तय किया गया है। इन गाइडलाइंस को जारी करने का मकसद बच्चों को बस्ते के बोझ से राहत देना है। लेकिन सवाल यह है कि इसे लागू करना क्या आसान होगा? यह सवाल इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि देश में कोई एक बोर्ड है नहीं। जब बोर्ड अलग हैं, तो उनका सिलेबस भी अलग है और किताबों की मोटाई भी। ऐसे में, इन सरकारी गाइडलाइंस को लागू करना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं दिखती। सरकार ने बस्ते का बोझ कम करने के लिए दिशा-निर्देश तो जारी कर दिए हैं, लेकिन इन निर्देशों को जमीनी स्तर पर पालन कराना अब भी दूर की कौड़ी है।
मुकेश, झुंझुनू, राजस्थान
mukeshkumawas302@gmail.com
केजरीवाल का बड़ा दांव
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने राज्य के कर्मचारियों को पुरानी पेंशन बहाल करने का आश्वासन देकर देश में एक नया मुद्दा छेड़ दिया है। दिल्ली सरकार पुरानी पेंशन बहाल करे या न करे, मगर ऐसा बयान देकर मुख्यमंत्री राष्ट्रीय राजनीति की ओर बढ़ चले हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि पूरे देश के कर्मचारियों के लिए यह एक बड़ा मुद्दा है। नेताओं को पेंशन, तो सरकारी कर्मचारियों को क्यों नहीं? या तो सबको पेंशन मिले या फिर सबका बंद हो। वैसे भी, नेता, मंत्री, सांसद व विधायकों को पेंशन क्यों मिले, वे तो सेवा के भाव से काम करते हैं। पेंशन तो कर्मचारियों को मिलना चाहिए, जो नियमित घंटे के हिसाब से काम करते हैं। इस मसले पर पूरे देश के कर्मचारी एकजुट हो रहे हैं। जिस हिसाब से कर्मचारियों में सुगबुगाहट है, उसे देखकर यही लगता है कि आने वाले दिनों में एक बड़ा आंदोलन खड़ा होने वाला है।
रवि कुमार चंद्रवंशी, नयागांव, सारण
ravikr.1983r@gmail.com

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