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कठपुतली सरकार

इमरान खान भारतीय मीडिया में सुर्खियों में हैं। हों भी क्यों न, वह पड़ोसी मुल्क का सिरताज बनने वाले हैं। मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान में सत्ता की असली चाबी सेना, आईएसआई और आतंकियों के पास...

कठपुतली सरकार
हिन्दुस्तानSat, 28 Jul 2018 01:38 AM
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इमरान खान भारतीय मीडिया में सुर्खियों में हैं। हों भी क्यों न, वह पड़ोसी मुल्क का सिरताज बनने वाले हैं। मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान में सत्ता की असली चाबी सेना, आईएसआई और आतंकियों के पास होती है। प्रधानमंत्री तो बस कठपुतली होता है। इसीलिए वजीर-ए-आजम का चेहरा बदल जाने मात्र से पाकिस्तान की फितरत नहीं बदलने वाली। वह पहले की तरह ही हमें परेशान करता रहेगा। ऐसे में, कश्मीर समस्या हो या फिर सीमा पार से संचालित होने वाली आतंकी गतिविधियां, भारत को अपने कूटनीतिक कौशल और सैन्य बल से ही इनसे निपटना होगा। इसके अलावा, हमारी सरकार के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

ऋषिकेश दुबे, बरिगावां, पलामू

बेसहारा बच्चों का दर्द

मुजफ्फरपुर की घटना ने बिहार की छवि को तो धूमिल किया ही है, नारी की गरिमा और सम्मान को भी तार-तार किया है। ‘सुशासन बाबू’ कहे जाने वाले नीतीश कुमार के राज में दो दर्जन से अधिक लड़कियों का यौन शोषण होता रहा और इसकी भनक न उनकी सरकार को लगी, न स्थानीय प्रशासन को। जिस समाज में लड़कियों को देवी का दर्जा दिया जाता है, वहां इस तरह की घटनाओं का होना शर्म का विषय है। समझना चाहिए कि ‘आश्रय घर’ बेसहारों का बसेरा होता है। मगर यहां भी अगर उनके साथ दुव्र्यवहार होने लगे, तो फिर उनके लिए कौन सा ठिकाना बचता है? जरूरी है कि इस मामले को एक गंभीर चेतावनी के रूप में लिया जाए। देश भर में स्थित तमाम आश्रय घरों की निष्पक्ष जांच हो और प्रशासन और सरकार बेसहारा लोगों की संजीदगी से सुध ले। 

पीयूष कुमार, नई दिल्ली

बेदिल दिल्ली

दिल्ली के मंडावली में कुपोषण और भूख से तीन बच्चियों के दम तोड़ने की घटना दुर्भाग्यपूर्ण है। यह हमारे सभ्य समाज के मुंह पर एक करारा तमाचा है। एक पिता की जिम्मेदारी और समाज के नैतिक कर्तव्यों से जी चुराकर भागने का भी यह एक बेहद घिनौना व शर्मनाक उदाहरण है। दिल्ली जैसे बड़े महानगर में, जहां खाने-पीने और भौतिक सुख-सुविधाओं के साधन समाज के हर तबके की पहुंच में हैं, वहां बच्चियों का यूं दम तोड़ना हमारी सामाजिक, राजनीतिक व प्रशासकीय जिम्मेदारियों का हाल बता रहा है। यह बताता है कि समाज किस हद तक असंवेदनशील हो चुका है। इंसानियत को भूलकर सब अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने में जुटे रहते हैं। सुबह से शाम तक उनकी भागदौड़ चलती रहती है। इस भागमभाग में उन्हें अपने पड़ोसियों तक से कोई मतलब नहीं होता। क्या यह तस्वीर बदलनी नहीं चाहिए? अगर मंडावली में पड़ोसियों ने कुछ करुणा दिखाई होती, तो क्या आज वे बच्चियां जीवित नहीं होतीं? हमें अपने अंदर झांकना चाहिए।

हितेंद्र डेढ़ा, चिल्ला गांव, दिल्ली

टूटता ताना-बाना

अभी मॉब र्लिंंचग और बलात्कार जैसी आपराधिक घटनाएं सभी का ध्यान खींच रही हैं। ऐसी कोई भी घटना भारत जैसे सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत वाले देश के लिए शर्मनाक है। स्वयं प्रधानमंत्री भी ऐसी घटनाओं पर अपना रुख स्पष्ट कर चुके हैं। इन सबके बावजूद ये घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रहीं। इससे देश की छवि तो खराब हो ही रही है, आपसी वैमनस्य भी बढ़ रहा है। मुश्किल यह है कि इन घटनाओं का विरोध करने वाले ‘सेलेक्टिव’ हैं। सभी तो नहीं, लेकिन ज्यादातर इसी श्रेणी में गिने जाएंगे। वे खास घटनाओं की ही चर्चा करते हैं। ऐसे लोग इन अपराधों पर चर्चा करके और सरकार को कठघरे में खड़ा करके अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहते हैं। इससे सामाजिक ताने-बाने को क्षति पहुंचती है और घटनाओं का सही आकलन भी नहीं हो पाता है।

वंदना बरनवाल, लखनऊ, उप्र

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