दोषियों को सजा दिलाएं
नैतिक मूल्यों के पतन के इस दौर में महिलाओं और बालिकाओं से दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। अशुद्ध आचार-विचार मनुष्य की इस प्रवृत्ति के लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं। दरअसल, ऐसी आपराधिक प्रवृत्ति के लोग...
नैतिक मूल्यों के पतन के इस दौर में महिलाओं और बालिकाओं से दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। अशुद्ध आचार-विचार मनुष्य की इस प्रवृत्ति के लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं। दरअसल, ऐसी आपराधिक प्रवृत्ति के लोग एक तरह से मानसिक विकृत्ति के शिकार होते हैं। उनको न तो लोक-लाज की चिंता होती है, और न कानून की। इसे दूर करने के लिए शिक्षा का स्तर सुधारना तो जरूरी है ही, सामाजिक जागरूकता अभियान भी चलाया जाना आवश्यक है। महिलाओं की सुरक्षा की व्यवस्था करने के साथ ही जरूरी यह भी है कि यौन उत्पीड़न के दोषी पाए जाने वाले लोगों को सख्त सजा मिले। इसके लिए अगर कानून में बदलाव की जरूरत है, तो वह काम भी तुरंत होना चाहिए।
युधिष्ठिर लाल कक्कड़
गुरुग्राम, हरियाणा
दुखद हालात
ऑस्ट्रेलिया में चल रहे राष्ट्रमंडल खेलों की विभिन्न प्रतियोगिताओं में जहां भारतीय खिलाड़ियों का बेहतरीन प्रदर्शन देखकर मन खुशी से झूम उठता है, वहीं देश के भीतर का परिदृश्य अत्यंत कष्ट देता है। संसद में गतिरोध, अनुसूचित जाति/ जनजाति का हिंसात्मक आंदोलन, प्रतिक्रिया में आरक्षण विरोधी आंदोलन, उन्नाव और कठुआ में लड़कियों का शीलहरण, आरोपियों का सामूहिक बचाव आदि कुछ ऐसे दृष्टांत है, जिनसे यह आभास होता है कि हम भारतवासी व्यक्तिगत रूप से चाहे जितने अच्छे हों, लेकिन समूह में हमारी अच्छाई पर ग्रहण लग जाता है। हम अत्यंत प्राचीन और सांस्कृतिक रूप से संपन्न सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं, फिर भी देश के भीतर ऐसे निंदनीय हालात बन रहे हैं। कहीं यह पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण का नतीजा तो नहीं? हमें इस पर विचार करके समाधान का रास्ता तलाशना चाहिए।
नर सिंह, शास्त्री नगर, मेरठ
narsingh2323@gmail.com
बस्ते का बोझ
क्या सरकार बरसों से चले आ रहे एक प्रयास को पूरा कर पाएगी? यह प्रयास है, बच्चे का स्कूली बस्ता हल्का करना। बस्ते के बोझ दले दबा बचपन आज मानसिक तनाव से ग्रस्त हो रहा है। इससे उसके शरीर पर असर पड़ रहा है। आखिर बच्चों की पीठ पर इतना बोझ क्यों लाद दिया गया है? असल में, शिक्षा नीति की तरफ सरकारों ने कभी संजीदगी से ध्यान दिया ही नहीं। बस मैकाले का अंधानुकरण करते चले गए। नतीजतन, बच्चे बस्ते का बोझ ढोने को मजबूर हैं। अगर हमें बचपन संवारना है, तो सबसे पहले हमें उस शिक्षा नीति को बदलना होगा। शिक्षा का जो व्यवसायीकरण इन दिनों हो रहा है, उसे भी रोकना होगा। बच्चों को स्कूल में इतना होमवर्क दे दिया जाता है कि वे तनाव में आ जाते हैं। इस तनाव को दूर करना होगा। प्राचीन काल में शिक्षा पद्धति ऐसी होती थी, जिसमें बच्चों पर पुस्तकों का बोझ कम होता था। तब जीवन को क्रियात्मक और ऊर्जावान बनाने की कोशिशें होती थीं। आज वैसी ही शिक्षा की जरूरत है।
जयदेव राठी भराण, रोहतक, हरियाणा
jaidevrathee@gmail.com
उपवास की राजनीति
आजकल नेतागण उपवास खूब कर रहे हैं। यदि उन्हें देश और जनता से इतना ही प्यार है, तो वे उस समय कहां थे, जब नोटबंदी के कारण दर्जन लोग बैंकों की कतारों की भेंट चढ़ गए? ये उस वक्त कहां थे, जब कई लोग बंद के दौरान उपद्रवियों की भेंट चढ़ गए? तब उपवास याद क्यों नहीं आया, जब इराक में तीन दर्जन से अधिक भारतीय मार डाले गए? प्रतिदिन सीमा पर शहीद हो रहे सैनिकों की शहादत पर भी क्या उन्हें उपवास सूझा? अब जब आम चुनाव निकट है, तब नेतागण उपवास का खेल खेलकर जनता को गुमराह करना चाहते हैं। प्रकृति के कहर ने किसानों की कमर तोड़ दी है, मगर अन्नदाताओं के दर्द में उपवास करना उन्हें नहीं दिखता। उन्हें याद रखना चाहिए कि यदि वे जनता को छलेंगे, तो जनता भी उचित तरीके से जवाब देगी।
राकेश कौशिक, नानौता, सहारनपुर