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यह कैसा विरोध

यह कैसा विरोध देश की हालत अब ऐसी जान पड़ती है कि मानो, यहां कोई तंत्र या कानून-व्यवस्था है ही नहीं। सरकार को खुली चुनौती देने में ही जनता अपना हित देख रही है। सरकार से अपनी बात मनवाने के लिए उसके पास...

यह कैसा विरोध
हिन्दुस्तानSun, 30 Sep 2018 09:17 PM
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यह कैसा विरोध
देश की हालत अब ऐसी जान पड़ती है कि मानो, यहां कोई तंत्र या कानून-व्यवस्था है ही नहीं। सरकार को खुली चुनौती देने में ही जनता अपना हित देख रही है। सरकार से अपनी बात मनवाने के लिए उसके पास सिर्फ एक विकल्प है, सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाना। लोग समझते हैं कि सत्ताधारी पार्टी अपने पैसे से सरकारी संपत्ति खरीदती हैै और उसको हानि पहुंचाने से सरकार उसकी बात मान जाएगी। इन लोगों को भला कौन समझाए कि जनता के पैसे से ही देश चलता है, और सरकारी संपत्ति किसी सरकार की नहीं, बल्कि जनता की होती है। यानी सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाकर खुश होना दरअसल अपनी संपत्ति बरबाद करके खुश होने जैसा है। साफ है, विरोध के नाम पर यूं सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाना उचित नहीं। विरोध-प्रदर्शन का कुछ अलग तरीका लोगों को ढूंढ़ना चाहिए। -विकास वर्मा, मोदीनगर, गाजियाबाद

प्रशासन करे सहयोग 
तीन तलाक जैसा मुद्दा हो या 150 साल पुरानी भारतीय दंड सहिता की धारा 497 (एडल्टरी) का मसला, सर्वोच्च न्यायालय ने महिलाओं की गरिमा और सम्मान को सबसे ऊपर बताया है। हालांकि महिलाओं के समान अधिकार और समाज में उनकी सुरक्षा को पुख्ता करने के लिए कई अधिनियम पहले से ही मौजूद हैं। किसी महिला को घूरना, उन पर फब्तियां कसना अपराध माना जा चुका है। मगर धरातल पर ये कितने प्रभावी हैं, यह आए दिन महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों में वृद्धि से जाहिर हो जाता है। मेरठ में ही पुलिस द्वारा जिस तरह एक लड़की का दमन किया गया, वह कानून का मजाक उड़ाना है। हालांकि इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि महिलाएं खुद पर होती हिंसा को बर्दाश्त कर लेती हैं। उनका चुप रह जाना गलत है। उन्हें अब खुलकर इसका विरोध करना चाहिए। इसमें प्रशासन का सहयोग भी काफी जरूरी है, तभी महिलाओं की गरिमा को लेकर शीर्ष अदालत की सोच जमीन पर उतर सकेगी। -स्मिता त्रिपाठी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय

आरक्षण का आधार
सुप्रीम कोर्ट ने पदोन्नति में आरक्षण का मुद्दा राज्य सरकारों पर छोड़कर अदालती विवाद भले ही खत्म कर दिया है, मगर अब कर्मचारियों के बीच रार छिड़ना तय है। दरअसल, आजादी के सात दशकों के बाद भी आरक्षण जारी रखने का औचित्य नहीं है। अब तक की तमाम सरकारें इस पर राजनीतिक रोटियां ही सेंकती आई हैं। आरक्षण की राजनीति करने वाले नेता कहां से कहां पहुंच गए, लेकिन आरक्षित तबके की स्थिति जस की तस बनी हुई है। बेहतर होगा कि सरकार जातीय आरक्षण खत्म करके इसका आधार गरीबी कर दे। गरीब परिवारों को एक खास कार्ड दिया जाए और जब उस परिवार का कोई सदस्य नौकरी पा ले, तो उससे यह सुविधा वापस ले ली जाए। इससे न केवल जातिवाद खत्म होगा, बल्कि संपन्न जातियों की आरक्षण की मांग भी खत्म हो जाएगी। -ऋषि कुमार

आधार की सुरक्षा
अदालती फैसले में आधार कार्ड की जिन-जिन क्षेत्रों से अनिवार्यता खत्म की गई है, वह उचित है। आधार डाटा की गोपनीयता को ज्यादा खतरा मोबाइल कंपनियों से ही है। हालांकि आधार पर तब तक विश्वास नहीं किया जा सकता, जब तक कि देश की सरकार इसके डाटा की सुरक्षा के लिए प्रभावी तंत्र विकसित नहीं कर लेती। केवल सुरक्षित कह देने मात्र से इसकी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो जाती। देश में नागरिकों की पहचान के लिए यूनिक आईडी होना अच्छी बात है, लेकिन बदलती तकनीक के इस युग में हैकर्स आधार डाटा में सेंध लगा सकते हैं। ऐसे में, सरकार द्वारा आधार सुरक्षा की जिम्मेदारी पर खरा उतरना एक बड़ी चुनौती है। -पिंटू सक्सेना, लखनऊ

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