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भरे हैं भंडार फिर क्यों भूखे

जिस देश को कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था, वहां पर प्रतिदिन अनगिनत लोग बिना खाए सो जाते हैं। जिस देश की अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाइयों पर ले जाने की खूब बातें हो रही हैं, वहां असंख्य लोग बेघर हैं।...

भरे हैं भंडार फिर क्यों भूखे
हिन्दुस्तान Wed, 06 Nov 2019 12:25 AM
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जिस देश को कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था, वहां पर प्रतिदिन अनगिनत लोग बिना खाए सो जाते हैं। जिस देश की अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाइयों पर ले जाने की खूब बातें हो रही हैं, वहां असंख्य लोग बेघर हैं। अभूतपूर्व औद्योगिक व आर्थिक विकास के साथ-साथ पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन, भूख और कुपोषण से निपटने के लिए दुनिया की सर्वाधिक महत्वाकांक्षी योजनाओं के बावजूद हमारी बहुत बड़ी आबादी का भूखे सोना, बेहद चिंताजनक है! हाल में आए वैश्विक भूख सूचकांक में 117 देशों की सूची में हमारा स्थान 102 था। इससे पता चलता है कि देश में गरीबी की स्थिति क्या है। इस सूची में हमारे पड़ोसी देश चीन 25वें, श्रीलंका 66वें, म्यांमार 69वें, नेपाल 73वें व बांग्लादेश 88वें स्थान पर हैं। ‘हंगर इंडेक्स’ में पाकिस्तान भी कहीं बेहतर स्थिति में है। सरकार को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
सुशील वर्मा, गोरखपुर विश्वविद्यालय

 

विरोधाभासी सिस्टम
इस समय की सबसे हैरान करने वाली खबर यह है कि दिल्ली की हवा बदतर हो गई है, और यहां सांस लेने में भी दिक्कतें हो रही हैं। कहा जा रहा है कि यह प्रदूषण पराली जलाने की वजह से हो रहा है, मगर हमारी गाड़ियों से कोई ऑक्सीजन गैस तो नहीं निकलती। यह वही ऑटोमोबाइल सेक्टर है, जो मंदी की चपेट में है। हमारे सिस्टम में गजब का विरोधाभास है। एक तरफ ऑटोमोबाइल सेक्टर में गिरावट आ रही है, अर्थव्यवस्था नीचे जा रही है, तो वहीं दूसरी तरफ प्रदूषण विकराल समस्या बन बैठा है। हम चाहते हैं कि अधिक से अधिक गाड़ियों को बेचकर अर्थव्यवस्था को सुधार लें, और साथ में ग्लोबल वार्र्मिंग पर सम्मेलन भी कर लें।
युवराज तिवारी

 

बातें ज्यादा काम कम
दम घोटने वाली दिल्ली की हवाओं ने जिस तरह लोगों का सांस लेना मुहाल कर रखा है, वह कोई अचंभे की बात नहीं है। इंसान ने कुदरत की बनावट में अपना हस्तक्षेप कुछ ज्यादा ही बढ़ा दिया है, तो फिर वह उसका बदला लेगी ही। और बदला लेने के उसके तरीके को भी दुनिया ने देखा ही है, चाहे वह तरीका बाढ़ के रूप में हो या भूकंप के रूप में या तूफान के रूप में। जब भी हमने प्रकृति के दायरे को समेटने की कोशिश की, उसने हमें हमारी सीमाओं का एहसास कराया है। दिल्ली सरकार हर साल ऐसी परिस्थितियों से निपटने की कसमें खाती है, मगर नतीजे हर साल फुस्स ही रहते हैं। इस मुद्दे पर केंद्र सरकार भी खुद को पीछे रखती हुई दिखाई दे रही है। इसके पीछे राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता हो सकती है। सवाल यह है कि पहले भी पड़ोसी राज्य  पराली जलाते थे। तब की सरकार इसे कैसे मैनेज करती थी? कंस्ट्रक्शन, पटाखे भी खूब जलते थे, पर ऐसी स्थिति नहीं आई थी। इसकी चर्चा भी नहीं होती थी। आज की सरकारें चर्चा तो खूब करती हैं, पर तैयारी नहीं करतीं। वे बस ऐसे काम कर रही हैं, जिनसे सिर्फ चर्चा में बनी रहें। 
मोहम्मद आसिफ, दिल्ली

 

सम-विषम की आलोचना
दिल्ली के राजनेता जो कुछ कहें, मगर दिल्ली की जनता ऑड-ईवन योजना का स्वागत करती है। जहां वायु प्रदूषण के मारे लोगों का सांस लेना मुश्किल हो रहा हो, वहां किसी भी सरकार की हवा को आंशिक रूप से भी स्वच्छ बनाने वाली कोई पहल सराहनीय है। दुर्योग से राजनीति का स्तर इतना नीचे आ चुका है कि प्रदूषण का स्तर उसका मुकाबला कर ही सकता। जो शहर देश की राजधानी है, जिसे देश-दुनिया के लिए हरेक मामले में आदर्श होना चाहिए, वह कुत्सित राजनीति की वजह से कभी रेप कैपिटल, तो कभी गैस चेंबर के कलंक को ढोता रहता है। जनता को ऐसे तमाम नेताओं और पार्टियों को सबक सिखाना चाहिए कि अपनी जिंदगी की कीमत पर राजनीति हमें मंजूर नहीं।
मान्या सिंह
गुरु रामदास नगर, दिल्ली-92

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