संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के 75 साल पूरे होने के मौके पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने उचित ही चेताया है कि आज दुनिया एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां से आगे बढ़ने के लिए इसे असाधारण एकता और विश्व-स्तरीय सहयोग की जरूरत है। उन्होंने मौके की नजाकत और अपनी जिम्मेदारी के अनुरूप सभी सदस्य राष्ट्रों का आह्वान किया कि अभी वे आपसी विवादों और टकरावों को ठंडे बस्ते में डालकर कोरोना संक्रमण और इससे उपजी दूसरी समस्याओं से निपटने में जुट जाएं! संयुक्त राष्ट्र महासचिव की ये बातें अमल में लाने के योग्य हैं, किंतु सभी जानते हैं कि वीटो पावर वाले देश और इसे चलाने के लिए धन देने वाले राष्ट्रों का इस विश्व-स्तरीय संस्था पर परोक्ष रूप से कब्जा है। वे विश्व-हित से पहले स्वहित साधने में पीछे नहीं रहते। इन दिनों तो संयुक्त राष्ट्र के सारे नियम-कायदे सिर्फ कमजोर राष्ट्रों को बाध्य करने के काम आ रहे हैं। महाशक्तियों ने इसे एक लाचार संस्था बना दिया है। महासचिव को इस पर भी गौर करना चाहिए।
सुभाष बुड़ावन वाला, रतलाम
बेजा आलोचना
एक-दूसरे की आलोचना के अलावा अब भारतीय लोकतंत्र में शायद कुछ बचा नहीं है। कुछ तत्व अपने निजी तर्क-वितर्क से इतना मोहित हो जाते हैं कि उन्हें दूसरों की प्रतिभा दिखती ही नहीं। कुछ ऐसा ही हुआ प्रधानमंत्री के जन्मदिवस के मौके पर, जिस दिन कुछ लोगों ने बेरोजगारी दिवस मनाकर दूसरे तमाम लोगों को मायूस किया और दुश्मन देशों का हौसला बुलंद करने का काम किया। कहते हैं, हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। इस मामले में भी यही दिखा। प्रधानमंत्री के विरोध में दुश्मन देशों का साथ देने वाले ये लोग यह देखकर भौंचक रह गए होंगे कि प्रधानमंत्री को दुनिया भर से बधाइयां और शुभकामनाएं मिलीं। यह सब देखकर पूरा देश गौरवान्वित हो उठा। प्रतिभा और सामथ्र्य के आगे पूरी दुनिया घुटने टेक देती है। इन आलोचकों को भी आगामी चुनावों में इसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आगे घुटने टेकने होंगे।
आकाश वर्मा
पटना सिटी, बिहार
गिरते पूल
आज की युवा पीढ़ी अपने समय में बनाए गए पूलों को भी गिरते हुए देख लेती है, जबकि अशोक के शिलालेख और अंग्रेजों द्वारा बनाए गए पूल आदि के साथ-साथ मंदिरों व विभिन्न स्मारकों के एक से एक पुराने ढांचे को देखकर सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस समय कितने मनोयोग से लोग काम किया करते थे। कितनी अधिक निष्ठा थी उनमें। मगर आज हर जगह बेईमानी और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। अच्छा होता कि पूल और सड़क आदि के साइनबोर्ड में यह भी दर्ज किया जाता कि कब तक ये सलामत रहेंगे? करोड़ों की लागत से बने पूल यदि बनने के कुछ वर्षों में ही गिर जाते हैं, तो न केवल पूल टूटता है, बल्कि आम जनता का विश्वास भी व्यवस्था से उठ जाता है। इससे बचने की जरूरत है।
मिथिलेश कुमार, भागलपुर
सबका चाहिए साथ
संसद से कृषि सुधार व श्रम सुधार बिल के पास होने के बाद किसानों-मजदूरों को चाहे कुबेर का खजाना मिल जाए, चाहे वे रंक से राजा बन जाएं, या वे अपनी मर्जी से उपज बेचें या सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर, लेकिन लोकतंत्र में विरोध कर रहे विपक्षी दलों या आलोचकों की बातें सुनने-समझने के बाद ही ये बिल पारित किए जाने चाहिए थे। तभी सच्चे मायने में ‘सबका साथ, सबका विकास’ हो पाता। लोकतंत्र में सबको संतुष्ट करना आवश्यक है। ऐसे में, कृषि व श्रम सुधार बिल जिस तेजी से पारित किए गए हैं, वे लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप नहीं हैं। सरकार को सबको विश्वास में लेना चाहिए था।
हेमा हरि उपाध्याय
अक्षत खाचरोद, उज्जैन