बिहार में SC आरक्षित विधानसभा सत्ता की सूत्रधार; जिसने जीती ज्यादा रिजर्व सीटें, उसकी बनी सरकार
वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर आरक्षित सीटों पर सत्ताधारी दलों की बढ़त कायम रही। भाजपा 10, जदयू आठ तो मुख्य विपक्षी दल राजद को नौ सीटें मिली। कांग्रेस के खाते में पांच सीटें आई।

बिहार में सत्ता की बड़ी सूत्रधार आरक्षित सीटें रही हैं। आजादी के बाद से लेकर अब तक हुए तमाम विधानसभा चुनावों में जिस किसी पार्टी को आरक्षित सीटें अधिक मिली है, वह सत्ता पर काबिज हुई है। चुनाव परिणाम पर गौर करें तो दो बातें साफ है। पहला, एससी-एसटी वर्ग सत्ता में आने की संभावना रखने वाले दल या गठबंधन को अपना समर्थन देते हैं। दूसरा, आरक्षित सीटों के मतदाताओं की पसंद कभी भी एक पार्टी नहीं रही। कई ऐसे चुनाव हुए जब सत्ताधारी दल को दो-तिहाई आरक्षित सीटें हासिल हुई।
हालांकि, देश-प्रदेश में हुए राजनीतिक बदलाव के साथ आरक्षित सीटों का गणित भी बदलता रहा। पर इसके अपवाद भी रहे हैं। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में देश की राजनीति बदली लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में बिहार का आरक्षित वर्ग महागठबंधन के साथ ही बना रहा और यह सत्तासीन भी हुआ।
1977 में हुए चुनाव में जनता पार्टी की बनी सरकार
आजादी के बाद कई चुनावों तक कांग्रेस का बिहार की आरक्षित सीटों पर दबदबा रहा। जयप्रकाश आंदोलन के बाद 1977 में हुए चुनाव में जनता पार्टी की सरकार बनी। तब, इस पार्टी को दो-तिहाई आरक्षित सीटों पर जीत मिली। इसके बाद के चुनाव में कांग्रेस की ताकत बढ़ी और वह सत्ता में लौटी। दो-तिहाई आरक्षित सीटें भी उसके हिस्से में लौटीं। 1990 में जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई और जनता दल सरकार में आई तो आरक्षित सीटों पर उसका प्रभुत्व कायम हो गया।
जनता दल से अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ने वाले लालू प्रसाद को 2000 के चुनाव में सबसे अधिक आरक्षित सीटें मिलीं। 2005 के चुनाव में एनडीए का पलड़ा भारी रहा। 2010 का चुनाव तो ऐतिहासिक रहा जब बिहार की सभी आरक्षित सीटों पर केवल जदयू और भाजपा के ही विधायक जीते। लेकिन जब 2015 में जदयू और राजद का समीकरण बना तो अधिक आरक्षित सीटें महागठबंधन के हिस्से में आई। लेकिन 2020 के चुनाव में एक बार फिर एनडीए का आरक्षित सीटों पर दबदबा कायम हो गया।
संयुक्त बिहार में निर्दलीय के पाले में भी जाती रही है जीत
आंकड़ों के अनुसार वर्ष 1977 के में 324 सीटों के लिए चुनाव हुए। इसमें 46 सीट अनुसूचित जाति तो 28 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित थीं। इनमें 57 सीटों पर जनता पार्टी ने जीत हासिल की। कांग्रेस को मात्र सात तो सीपीआई को पांच सीटें मिलीं। चार निर्दलीय तो बाकी सीटों पर अन्य दलों का कब्जा हुआ। इसके बाद 1990 में बड़ा बदलाव हुआ। उस समय 324 सीटों में 49 एससी तो 28 सीटें एसटी के लिए आरक्षित थी।
सरकार बनाने वाले जनता दल को सबसे अधिक 25 सीटें हासिल हुईं, जबकि कांग्रेस को 16, भाजपा को 14, झामुमो को 12, सीपीआई को छह सीटें मिली। 1995 में दो और सीटों का इजाफा हुआ और जनता दल को 27 सीटें मिलीं। भाजपा 15, झामुमो 11, कांग्रेस को 14 तो सीपीआई को छह सीटें मिली। 2000 के चुनाव में जनता दल को तोड़कर राजद बनाने वाले लालू प्रसाद 22 सीटें अपनी झोली में लाने में कामयाब रहे।
झामुमो को आठ, कांग्रेस को सात, समता पार्टी को पांच तो जदयू को तीन सीटें मिली। बिहार विभाजन के बाद फरवरी 2005 में हुए पहले चुनाव में कुल 243 में से 39 सीटें एससी के लिए आरक्षित थीं। राजद को सबसे अधिक 12 सीटें मिलीं। जदयू के खाते में नौ तो भाजपा छह सीटें मिली। लोजपा के खाते में चार, कांग्रेस को तीन, सीपीआईएमएल को दो और एक निर्दलीय भी चुनाव जीते। लेकिन तब किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने के कारण सरकार का गठन नहीं हो सका।
अक्टूबर 2005 में हुए चुनाव में 39 में से जदयू ने 16 तो भाजपा ने 11 सीटों पर जीत हासिल कर सरकार बनाई। राजद को सात, कांग्रेस को दो और लोजपा एक सीट जीतने में कामयाब हुई। 2010 के चुनाव में आश्चर्यजनक तरीके से 38 एससी और दो एसटी सीटों मे से 20-20 जदयू और भाजपा को प्राप्त हुई। 2015 में महागठबंधन की सरकार बनी। गठबंधन में शामिल राजद को सबसे अधिक 15, जदयू को 11 और कांग्रेस के हिस्से में छह सीटें हासिल हुई।
राज्य में घटती-बढ़ती रही हैं आरक्षित सीटें
वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर आरक्षित सीटों पर सत्ताधारी दलों की बढ़त कायम रही। भाजपा 10, जदयू आठ तो मुख्य विपक्षी दल राजद को नौ सीटें मिली। कांग्रेस के खाते में पांच सीटें आई। सीपीआईएमएल तथा हम (से.) को तीन-तीन जबकि वीआईपी और सीपीआई को एक-एक आरक्षित सीटों पर जीत मिली।





