जब 7 दिन में ही सीएम की कुर्सी छोड़ गए थे नीतीश, जोड़-तोड़ से साफ मना कर दिया था
नीतीश कुमार की सरकार गिरने के बाद लालू यादव सक्रिय हुए और राबड़ी देवी के नेतृत्व में राजद की सरकार बनी। कुछ अन्य विधायकों के समर्थन से गठबंधन ने बहुमत साबित भी कर दिया। इसके बाद राबड़ी ने पांच सालों तक सरकार का नेतृत्व किया।

बिहार में 2000 का विधानसभा चुनाव बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार के प्रभावी हस्तक्षेप के लिए याद रखा जाएगा। वे इस दौरान भले ही सात दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने, लेकिन इसके बाद से ही बिहार की सियासत नयी करवटें लेनी शुरू कर चुकी थी। त्रिशंकु सदन बनने के बाद सरकार बनाने को खूब जोड़-तोड़ हुई। इस बीच बिहार बंटवारे की आहट भी आने लगी थी और इसको लेकर भी राजनीति चरम पर थी।
चुनाव परिणाम के बाद एनडीए और राजद गठबंधन के बीच सरकार बनाने को लेकर जबर्दस्त खींचतान हुई। नीतीश के नेतृत्व में एनडीए की सरकार भी बनी, लेकिन बहुमत साबित करने के पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इसके बाद लालू यादव की सरपरस्ती में राष्ट्रीय जनता दल ने सरकार बनायी और राबड़ी देवी को फिर मुख्यमंत्री बनाया गया। वे पांच वर्षों तक शासन चलाती रहीं।
1999 का लोकसभा चुनाव बिहार में एनडीए के लिए सुखद संदेश लेकर आया था। राज्य में 324 विधानसभा क्षेत्रों में से 199 क्षेत्र में एनडीए को बढ़त मिली थी। इसके बाद तो सूबे की राजनीति एकदम से गर्म हो गयी। अगले वर्ष ही विधानसभा चुनाव थे। माना जाने लगा कि अब लालू यादव की विदाई तय है। नीतीश के नेतृत्व में अगली सरकार की अटकलें लगायी जाने लगी। लालू के चारा घोटाला में नाम आने के बाद कांग्रेस ने उस चुनाव में राजद से दूरी बना ली। उसने अकेले विधानसभा का चुनाव लड़ने का फैसला किया।
लोकसभा चुनाव नतीजे से उत्साहित एनडीए जोश-खरोश से चुनाव में उतरा, लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद परिणाम पूरी तरह प्रतिकूल आए। 12वीं विधानसभा में राष्ट्रीय जनता दल फिर से सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। उसने 124 सीटें जीत ली। भारतीय जनता पार्टी दूसरे स्थान पर और मजबूती के साथ अपनी जगह पक्की की।
कांग्रेस ने तब तक का सबसे खराब प्रदर्शन किया। उसे केवल 21 सीटें आई। सरकार बनाने के लिए जादुई अंक 163 से सभी पीछे थे। दोनों ओर से सरकार बनाने की कवायद शुरू हो गयी। नीतीश के नेतृत्व में एनडीए के पास 151 विधायकों का समर्थन था। उधर, लालू यादव के पास 159 विधायकों का समर्थन हो गया। फिर भी दोनों बहुमत से दूर थे।
नीतीश ने तोड़-फोड़ से सरकार चलाने से कर दिया था मना
नीतीश ने समता पार्टी के नेता के रूप में सरकार बनाने का दावा पेश किया। 3 मार्च 2000 को वे सीएम बन गए। इसके बाद जादुई आंकड़ा जुटाने की कसरत शुरू हुई। बताया जाता है कि कई विरोधी विधायक उन्हें समर्थन देने को तैयार भी थे, लेकिन राजद के एक बाहुबली नेता ने कई विधायकों को अपने नियंत्रण में रख लिया। इससे एनडीए के लिए समर्थन जुटाना मुश्किल हो गया। नीतीश ने तोड़-फोड़ से सरकार कायम रखने से इनकार कर दिया। मात्र सात दिनों के बाद ही 10 मार्च को इस्तीफा दे दिया।
नीतीश सरकार गिरने के बाद लालू यादव सक्रिय हुए और उन्होंने सरकार बनाने का दावा पेश किया। राबड़ी देवी के नेतृत्व में राजद की सरकार बन गयी। कुछ अन्य विधायकों के समर्थन से राजद गठबंधन ने अपनी बहुमत साबित भी कर दिया। इसके बाद राबड़ी देवी ने पांच सालों तक सरकार का नेतृत्व किया। उन्होंने चार साल 360 दिनों तक सत्ता की बागडोर संभाली। भाजपा के सुशील कुमार मोदी विपक्ष के नेता बने। वे वर्ष 2004 तक इस पद पर रहे।
इसके बाद बदली परिस्थिति में जदयू के बड़ी पार्टी बनने के कारण उपेंद्र कुशवाहा को विपक्ष का नेता बनाया गया। वे 2005 तक की शेष अवधि के लिए विपक्ष के नेता रहे। जदयू के वरिष्ठ नेता वशिष्ठ नारायण सिंह कहते हैं कि नीतीश के नेतृत्व में सरकार तो बन गयी, लेकिन बहुमत का जुगाड़ नहीं हो पाया। नीतीश विधायकों की खरीद-फरोख्त के खिलाफ थे। उन्होंने जोड़-तोड़ से भी मना कर दिया। ऐसे में सरकार टिक नहीं पायी। नीतीश ने शक्ति प्रदर्शन करना भी उचित नहीं समझा और पद छोड़ दिया। राजद ने सरकार बनी ली।
समता पार्टी और जदयू का हुआ विलय
इसके पहले समता पार्टी और शरद यादव के नेतृत्व वाले जनता दल यूनाईटेड का विलय हुआ। इसके बाद नये रूप में जनता दल यूनाईटेड का गठन हुआ। इसके बाद इस दल की राजनीतिक ताकत बिहार में काफी तेजी से बढ़ी। इसका विस्तार भी तेजी से हुआ। कुमार का चेहरा लोगों के बीच लोकप्रिय होने लगा था।
15 नवंबर 2000 को हो गया बंटवारा
लालू के बिहार का बंटवारा नहीं होने देने के ऐलान के बावजूद 15 नवंबर 2000 को बिहार और झारखंड का बंटवारा दो अलग-अलग राज्यों के रूप में हो गया। झारखंड के स्वतंत्र अस्तित्व में आने के बाद बिहार में विधानसभा सीटों की संख्या 243 रह गयी। 81 सीटें झारखंड में चली गयी। झारखंड में भाजपा सरकार बनी। बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री चुने गये। इधर, बिहार में लालू और ताकतवर बन गए। उनकी देखरेख में राबड़ी सहयोगी दलों के साथ 2005 तक सरकार चलाती रहीं।
जिस झारखंड के लिए लालू तैयार नहीं थे, उसके लिए वे राजनीतिक मजबूरी में तैयार हो गए। उधर, झारखंड मुक्ति मोर्चा इसके लिए अड़ा हुआ था। उसे झारखंड में अपना बेहतर भविष्य नजर आ रहा था। लालू सरकार चलाने की खातिर झारखंड मुक्ति मोर्चा की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहते थे। वे जानते थे कि यदि बंटवारा नहीं हुआ तो झामुमो विरोध में जा सकता है। ऐसे में उनके लिए परेशानी खड़ी हो सकती है। लालू झारखंड में भाजपा और झामुमो दोनों से दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहते थे। दोनों के बीच अघोषित समझौता हो गया। अंत में सब बंटवारे के लिए तैयार हो गए।





