नीरज की शहादत: वीरता की अमर गाथा, अधूरे वादों की कसक
संक्षेप: शहीद नीरज की शहादत: वीरता की अमर गाथा, अधूरे वादों की कसक

लखीसराय, हिन्दुस्तान संवाददाता। ‘शहीदों की चिताओं पर हर वरस मेले, वतन पर मरने वालों का यहीं बाकी निशां होगा... यह पंक्तियाँ कारगिल युद्ध के शहीद नीरज कुमार की वीरता और बलिदान की गाथा को बयां करती हैं। 26 साल पहले, 12 जुलाई 1999 को कारगिल की बर्फीली चोटियों पर भारत माता का तिरंगा फहराते हुए सूर्यगढ़ा प्रखंड के अमरपुर पंचायत के सिंगारपुर गांव के इस सपूत ने अपनी शहादत दी। शहीद नीरज, जो बटालिक सेक्टर में 22 ग्रेनेडियर्स के लांस नायक थे, ने घुसपैठियों से वीरतापूर्वक लड़ते हुए अंतिम सांस तक देश की रक्षा की। इस युद्ध में उन्होंने तीन घुसपैठियों को मार गिराया, लेकिन दुश्मन की तोपों का निशाना बनने के बाद उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।
उनकी शहादत ने सूर्यगढ़ा का नाम रोशन किया, मगर आज उनकी स्मृति में किए गए वादे अधूरे पड़े हैं, जो उनके परिवार और ग्रामीणों के दिलों में कसक बनकर रह गए हैं। शहीद नीरज स्वर्गीय योगेंद्र सिंह के इकलौते पुत्र थे। जब उनका पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटकर पैतृक गांव सिंगारपुर पहुंचा, तो जनसैलाब उमड़ पड़ा था। हर आंख नम थी, हर दिल में देश के लिए उनके बलिदान का गर्व था। तत्कालीन मुख्यमंत्री राबड़ी देवी, पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव सहित कई नेता शहीद को श्रद्धांजलि देने उनके गांव पहुंचे थे। उस समय शहीद की स्मृति में कई घोषणाएं की गई। उनकी पत्नी रूबी देवी को स्थानीय स्कूल में सहायक शिक्षिका के पद पर नियुक्त किया गया। आज रूबी देवी उसी स्कूल में प्रभारी प्रधानाध्यापिका हैं, और उनकी बेटी सुमन ने बीए पूरा कर लिया है और पायलट बन उड़ान भरने की तैयारी कर रही है। लेकिन, शहीद की स्मृति को संजोने के लिए की गई अन्य घोषणाएं अधूरी रह गईं। अधूरे रह गए वादे: प्रशासनिक उपेक्षा की दास्तान शहीद नीरज की शहादत के बाद तत्कालीन नेताओं द्वारा उनकी स्मृति में कई योजनाओं की घोषणा की गई थी। लेकिन 26 वर्ष बीत जाने के बाद भी ये वादे कागजों तक सीमित हैं। रामपुर हॉल्ट, जहां से शहीद नीरज अपने गांव आते-जाते थे, का नाम “शहीद नीरज हॉल्ट” रखने की घोषणा की गई थी। लेकिन विवादों के चलते यह कार्य आज तक पूरा नहीं हुआ। इसी तरह, शहीद नीरज के नाम पर एक भव्य स्मारक बनाने का वादा भी अधूरा पड़ा है। हालांकि, स्थानीय स्कूल का नाम “शहीद नीरज स्मृति मिडिल स्कूल” कर दिया गया, लेकिन यह एकमात्र घोषणा है जो पूरी हुई। सामुदायिक भवन का निर्माण कार्य भी अधूरा है, और सिंगारपुर व सहूर जाने वाले चौक का नाम भले ही कारगिल चौक पड़ गया, लेकिन वहां बना शहीद द्वार उपेक्षित पड़ा है। न रंगाई-पुताई हुई, न ही इसका रखरखाव किया गया। गांव की सड़कें खस्ताहाल हैं, और पुलिया की मरम्मत का कार्य भी धीमी गति से चल रहा है। रूबी देवी कहती हैं कि उन्हें अपने पति के बलिदान पर गर्व है, लेकिन अधूरे वादों की पीड़ा उन्हें सालती है। उनके ग्रामीणों का कहना है कि न तो कारगिल विजय दिवस पर कोई कार्यक्रम आयोजित होता है, और न ही शहीद की स्मृति में किए गए वादे पूरे किए गए। कई ग्रामीण और उनके चाहने वाले हर साल 15 अगस्त, 26 जनवरी और 9 अगस्त को शहीद द्वार पर नीरज सहित अन्य शहीदों को श्रद्धांजलि देते हैं, लेकिन प्रशासन की ओर से कारगिल विजय दिवस पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। जुलाई 1999 का वह दौर रूबी देवी के लिए कभी न भूलने वाला है। उस समय वह अपनी सात माह की बेटी सुमन के साथ मायके खुटहा में थीं। उन्हें पता था कि कारगिल में युद्ध चल रहा है और उनके पति नीरज उसमें शामिल हैं। हर पल वह प्रार्थना करती थीं कि नीरज सकुशल लौटें। लेकिन 12 जुलाई 1999 को उनकी जिंदगी उजड़ गई। नीरज का पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटकर घर पहुंचा। रूबी का सपना, कि नीरज उनका गौना कराएंगे और उन्हें व बेटी को साथ ले जाएंगे, चकनाचूर हो गया। उनके ससुराल में मातम छा गया। रूबी कहती हैं कि अकेले बेटी को पालना आसान नहीं था, लेकिन नीरज की यादों ने उन्हें हौसला दिया। 2009 में ससुर और 2012 में सास के निधन के बाद वह पूरी तरह अकेली हो गईं। फिर भी, वह अपनी बेटी को पढ़ा रही हैं, जो अब पायलट बनने की तैयारी कर रही है। शहीद नीरज की स्मृति में 5.30 लाख रुपये की लागत से बनने वाला शहीद स्मृति भवन आज खंडहर में तब्दील हो चुका है। दरवाजे और खिड़कियां तक नहीं लगीं। शहीद द्वार के नाम पर केवल दो खंभे खड़े हैं। रूबी कहती हैं कि वह तत्कालीन मुख्यमंत्री राबड़ी देवी की आभारी हैं, जिन्होंने उन्हें नौकरी दी। लेकिन अधूरी पड़ी स्मृतियां उन्हें हर पल सालती हैं। ग्रामीणों का कहना है कि शहीद नीरज की शहादत को भुला दिया गया है। उनकी स्मृति में न तो कोई समारोह होता है, और न ही उनके नाम पर घोषित योजनाएं पूरी की गईं।

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