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संवादहीनता से बिगड़ रहे डॉक्टर-मरीज के संबंध

डॉक्टरी, जो कभी केवल सेवा हुआ करती थी, आज पेशा होते हुए धनोपार्जन का जरिया बन चुका है। मरीजों के प्रति डॉक्टर की सेवा भावना अब भी वैसी ही है, लेकिन मरीज और डॉक्टर के बीच आज एक भावनात्मक खाई बन चुकी...

डॉक्टरी, जो कभी केवल सेवा हुआ करती थी, आज पेशा होते हुए धनोपार्जन का जरिया बन चुका है। मरीजों के प्रति डॉक्टर की सेवा भावना अब भी वैसी ही है, लेकिन मरीज और डॉक्टर के बीच आज एक भावनात्मक खाई बन चुकी...
1/ 4डॉक्टरी, जो कभी केवल सेवा हुआ करती थी, आज पेशा होते हुए धनोपार्जन का जरिया बन चुका है। मरीजों के प्रति डॉक्टर की सेवा भावना अब भी वैसी ही है, लेकिन मरीज और डॉक्टर के बीच आज एक भावनात्मक खाई बन चुकी...
डॉक्टरी, जो कभी केवल सेवा हुआ करती थी, आज पेशा होते हुए धनोपार्जन का जरिया बन चुका है। मरीजों के प्रति डॉक्टर की सेवा भावना अब भी वैसी ही है, लेकिन मरीज और डॉक्टर के बीच आज एक भावनात्मक खाई बन चुकी...
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डॉक्टरी, जो कभी केवल सेवा हुआ करती थी, आज पेशा होते हुए धनोपार्जन का जरिया बन चुका है। मरीजों के प्रति डॉक्टर की सेवा भावना अब भी वैसी ही है, लेकिन मरीज और डॉक्टर के बीच आज एक भावनात्मक खाई बन चुकी...
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डॉक्टरी, जो कभी केवल सेवा हुआ करती थी, आज पेशा होते हुए धनोपार्जन का जरिया बन चुका है। मरीजों के प्रति डॉक्टर की सेवा भावना अब भी वैसी ही है, लेकिन मरीज और डॉक्टर के बीच आज एक भावनात्मक खाई बन चुकी...
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हिन्दुस्तान टीम,लखीसरायWed, 01 Jul 2020 12:28 AM
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डॉक्टरी, जो कभी केवल सेवा हुआ करती थी, आज पेशा होते हुए धनोपार्जन का जरिया बन चुका है। मरीजों के प्रति डॉक्टर की सेवा भावना अब भी वैसी ही है, लेकिन मरीज और डॉक्टर के बीच आज एक भावनात्मक खाई बन चुकी है, जिसे पाटने की नितांत आवश्यकता है। जिस तरह कोई शिक्षक नहीं चाहता कि उसका एक भी छात्र फेल हो, कोई वकील नहीं चाहता कि वह मुकदमा हार जाए, उसी तरह कोई डॉक्टर भी नहीं चाहते कि मरीज की जान पर कोई आफत आए।

दरअसल, आज मरीजों की अपेक्षाएं बढ़ गई है। मरीज अस्पतालों में पहुंचते ही उम्मीद जताने लगते हैं कि सबसे पहले उन्हीं का इलाज होगा, उनकी बीमारी तुरंत दूरी हो जाएगी! आज डॉक्टर्स डे है। इसी कड़ी में मंगलवार को जिले के कुछ चिकित्सकों से बातचीत कर उनकी राय जानने की कोशिश की गई कि आखिर आज धरती के भगवान और भक्तों के बीच दूरियां क्यों बन रही है? उनके हिसाब से कहां कमियां हैं और उसे कैसे दूर किया जा सकता है? इस मुद्दे पर चिकित्सकों ने इसके लिए थोड़ा खुद को, थोड़ा मरीजों और फिर थोड़ी परिस्थितियों को दोषी बताया। और इन सबसे बढ़कर दोषी बताया उन छुटभैये नेताओं या लोगों को, जोकि मामले को हवा देते हैं। इधर सिविल सर्जन डॉ आत्मानंद राय ने कहा कि महज चंद गिने चुने चिकित्सकों की मनमानी की वजह से पूरा चिकित्सक समाज बदनाम हो जाता है।

डॉक्टर इतने व्यस्त हैं कि मरीजों से तसल्ली से बात नहीं कर सकते

डॉ. अशोक कुमार खुद को खुशकिस्मत मानते हैं कि 35 साल के सेवाकाल में उन पर कोई आरोप नहीं लगे। वे कहते हैं कि मरीज कम पढ़े-लिखे होते हैं, लेकिल डॉक्टरों को उनकी काउंसेलिंग करनी चाहिए। डॉक्टर अतिव्यस्त हो गए हैं। बीमारी की गंभीरता, खतरा, बचने के चांस आदि के बारे में परिजनों से खुलकर बात होनी चाहिए।

डॉ. अनंत शंकर शरण सिंह कहते हैं कि डॉक्टर और मरीज दोनों की सोच बदली है। अब डॉक्टरों को मरीज भगवान का दर्जा नहीं देते। डॉक्टरों की आकांक्षाएं भी बढ़ी है। सरकारी अस्पतालों में कोई भी सरकार जो चाहे दावे कर ले, पर पूरा नहीं कर सकी है। संवादहीनता तो बड़ा कारण है ही।

चिकित्सक व्यवहार से समाप्त होती है आधी बीमारी

सदर अस्पताल में महिला रोग विशेषज्ञ के पद कार्यरत डॉ. रूपा की माने तो मरीजों की आधी बीमारी चिकित्सक के व्यवहार से ही समाप्त हो जाती है। इलाज के दौरान चिकित्सक के प्रति आत्मीयता का भाव होना चाहिए। चिकित्सक के व्यवहार से मरीज में यह अनुभूति महसूस हो कि अब उसकी बीमारी बिल्कुल ठीक हो जाएगी। चिकित्सक को मरीज के आर्थिक स्थति को देखते हुए सस्ता और बेहतर इलाज की व्यवस्था करनी चाहिए। ताकि गरीब मरीज दवा व इलाज के अभाव में स्वास्थ्य सेवा से बंचित न रह सके। रूपा कहती हैं कि चिकित्सक का थोड़ा अपनापन गंभीर से गंभीर मरीज के अंदर आत्मविश्वास पैदा कर देता है।

.....बाकी जीना-मरना तो ऊपरवाले के हाथ

डॉ. कुमार अमित कहते हैं कि इस खुबसूरत रिश्ते पर उपभोक्तावाद हावी हो गया है। मरीज भी खुद को उपभोक्ता समझने लगे हैं। मरीज को बचा पाने का सुख एक डॉक्टर ही महसूस कर सकता है। मरीज व चिकित्सक के बीच एक विश्वास का संबंध स्थापित होना चाहिए। जिसे स्थापित करने में चिकित्सक की भूमिका अहम है। बाकी जीना-मरना तो ईश्वर के हाथ में है।

डॉ. बिपिन कुमार कहते हैं कि डॉक्टर व मरीज के बीच की खाई पाटने में मीडिया की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। क्लिनिक पर कोई हंगामा न हो, इसपर भी ध्यान लगा रहता है और कभी-कभी एक सूई देने में भी असहज-सा महसूस होता है।

डॉ. आरके उपाध्याय की माने तो जिस तरह मरीज हमलोगों को भगवान का दर्जा देते हैं तो हमलोगों का भी फर्ज बनता है कि उनके विश्वास पर खड़ा उतरे। कुछ असामाजिक तत्व के लोग डॉक्टर वर्ग को टारगेट करते हैं। मरीज व चिकित्सक के बीच सही तालमेल नहीं होने का फायदा उनके द्वारा उठाया जाता है।

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