जंगल में पत्तल उद्योग की असीम संभावना है
नक्सल प्रभावित जंगलों में पत्तल उद्योग की असीम संभावना है। घने जंगलों में सखुआ, चेहार के पत्तों के लिए बनवासी समाज के लोग दिन रात लगे रहते...
नक्सल प्रभावित जंगलों में पत्तल उद्योग की असीम संभावना है। घने जंगलों में सखुआ, चेहार के पत्तों के लिए बनवासी समाज के लोग दिन रात लगे रहते हैं।
इस कारोबार में बनवासी समाज के लोग सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी काम करते आ रहे हैं। इनके पास जीविकोपार्जन का कोई स्थायी साधन भी नहीं हैं। किसी भी रूप में इनका जीवन बसर जंगल पर ही आश्रित है।
पत्तल के कारोबार में लगे कर्मी एक दिन पत्ता तोड़ते हैं, दूसरे दिन बिनते है और तीसरे एवं चौथे दिन सुखाकर बंडल बनाकर स्थानीय बाजार में सस्ते दरों में बेच देते हैं। यही है इनकी दिन चर्या फिर भी ये सुखी नहीं है।
इन रोजगारियों का कहना है कि सरकारी स्तर से इन्हें लाभ नहीं दिया जा रहा है। इनके रोजगार को बढ़ावा देने के लिये प्रयास नहीं किया जा रहा है। सात से नौ पत्ता जोड़कर ये एक पत्तल, तीस पत्ता जोड़ एक विंडा और बीस विंडा का एक हुंडा बनाते है जिसकी कीमत मात्र 110 रुपया इन्हें मिलता है।
प्रखंड मुख्यालय खैरा में विगत 5 वर्ष पूर्व लगभग डेढ़ दर्जन स्वयं सहायता समूह की 180 महिलाओं को पत्तल प्लेट बनाने की मशीन मुहैया करायी गई थी और उन्हें कहा गया था कि इस रोजगार से आप शीघ्र ही स्वावलंबी बन जाएंगे और आपकी आर्थिक विपलता दूर हो जाएगी। मगर हरणी, हरखार एवं गोली पंचायत के महिलाओं का दुर्भाग्य है कि 5 वर्ष का समय बीत गया और मशीन में जंग लग रहा है।
मशीन को संचालित करने के लिए चाहिए बिजली अथवा जेनरेटर दोनों में कुछ भी नहीं मिला। पत्तल प्लेट बनाने का प्रशिक्षण और पूंजी भी नहीं दी गई। पत्तल कर्मियों की यही दिन चर्या है बकरी चराना, सूखी लकड़ी व दतवन बेचना। इन्हें केवल इतना संतोष है कि इनके घर में मशीन है।
ये बताते हैं कि हमलोगों ने कई बार इस समस्या कि शिकायत प्रखंड में जाकर किया मगर आज तक कोई सुनवाई नहीं हुई। कहती है कि हम न स्वावलम्बी बन पाए न आर्थिक रुप से समृद्धवान ही । हमारे बाप दादा जो करते थे वहीं हम भी कर रहे हैं। हमारी ओर न स्थानीय प्रशासन की नजर है और न पंचायतीराज व्यवस्था का।