ग्रामीण क्षेत्रों में सदियों से चली आ रही है डगरन की प्रथा
शारदीय दुर्गा पूजा में मिथिला के ग्रामीण क्षेत्रों में घर-घर जाकर डगर देने की प्रथा सदियों से चली आ रही है। आधुनिकता की धमक तथा भौतिकवादी संस्कृति की चलन के बावजूद डगरन की प्रथा अब भी जीवंत...
शारदीय दुर्गा पूजा में मिथिला के ग्रामीण क्षेत्रों में घर-घर जाकर डगर देने की प्रथा सदियों से चली आ रही है। आधुनिकता की धमक तथा भौतिकवादी संस्कृति की चलन के बावजूद डगरन की प्रथा अब भी जीवंत है। इसके तहत ग्रामीण कलाकर हिन्दू समुदाय के प्रत्येक आंगन में जाकर डुगडुगी तथा तासे बजाकर डगर देते हैं। यह परंपरा मिथिला के ग्रामीण क्षेत्रों में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। ऐसी मान्यता चली आ रही है कि जिस आंगन में डगर दी जाती है उस आंगन से बुरी आत्माएं बाहर निकल जाती हैं। घर के लोगों पर नकारात्मक ऊर्जा का असर नहीं होता है। घर में सुख शांति, समृद्धि बनी रहती है। घर के लोग स्वस्थ्य रहते हैं। इसीलिए दुर्गा पूजा के कलशस्थापन से लेकर विजयादशमी पर्यंत घर घर जाकर ग्रामीण कलाकार डगर देते हैं। बदले में प्रत्येक घर से कलाकारों को अनाज तथा नगद के रुप में बक्शीस दी जाती है। जिससे ग्रामीण कलाकारों की अच्छी आमदनी हो जाती है तथा उन्हें कुछ आर्थिक उपार्जन का मौका मिल जाता है। डगर दे रहे पाली के ग्रामीण कलाकार सरयुग राम, प्रमोद राम,अशोक राम आदि ने बताया कि डगर देने के बाद जतरा (विजयादशमी) के दिन बहुत से लोग न्योछावर तथा ईनाम भी देते हैं। डगर देना मेरी पुश्तैनी पेशा है तथा इससे इस पर्व के बहाने समय विशेष पर सभी लोगों का महत्व एक समान है यह संदेश मिलता है। गांव के बच्चे डगर देने की प्रतीक्षा करते रहते हैं। जैसे ही तासे की खनकती आवाज तथा डुगडुगी बजती है। बच्चे झुंड बनाकर इनके साथ नाचने लगते हैं। दुर्गा पूजा से जुड़ी कुछ विशेष परंपराओं में से डगरन की प्रथा का मिथिला में विशिष्ट स्थान है। यहां के लोगों ने आधुनिकता की चकाचौंध के बीच अपनी प्राचीन परंपरा को बचाकर अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण रखा है।