मूर्तियों में रंग डालनेवाले मूर्तिकारों की जिंदगी बेरंग हो गई है। पूरे परिवार की कड़ी मेहनत से तैयार उनकी प्रतिमा पर महंगाई की मार तो पड़ती ही है, अगर मौसम बेदर्द हुआ तो कलाकारों के कई दिन की मेहनत पर पानी फिर जाता है। कादिराबाद-हसनचक सड़क के किनारे राजकिला के पास सड़क किनारे मूर्तिकारों की दर्जनों झोपड़ियां हैं। प्रभु पंडित बताते हैं कि यहां पर सीतामढ़ी, मधुबनी, समस्तीपुर, नेपाल आदि जगहों से प्रतिमाएं खरीदने के लिए आते हैं। वे कहते हैं कि दो से तीन हजार मूल्य तक की प्रतिमाएं वे बिना ऑर्डर के बनाते हैं लेकिन अधिक मूल्य की बड़ी प्रतिमाओं का निर्माण ऑर्डर मिलने पर ही करते हैं। प्रतिमा बनाने के लिए उपयोग में आनेवाली मिट्टी एक हजार से 12 सौ रुपये टेलर खरीदनी पड़ती है। इसके अलावा पुआल, बांस, चूना, पेंट, कांटी, तख्ता आदि की कीमत भी हर साल बढ़ जाती है। मेटेरियल के बढ़ते दाम के अनुसार मूर्तियों के दाम नहीं मिल पाते हैं। अभी जन्माष्टमी को लेकर राधा-कृष्ण की प्रतिमाओं के निर्माण में अधिकांश परिवार व्यस्त हैं। छोटी-छोटी प्रतिमाओं का रंग-रोगन भी शुरू हो चुका है जबकि बड़ी प्रतिमाएं भी लगभग बनकर तैयार है। प्रतिमाओं को अंतिम रुप दिया जा रहा है।
सत्तर वर्षीय प्रभु बताते हैं कि उनके टोले में 125 परिवार हैं। सभी लोग मूर्ति निर्माण के काम में ही लगे हैं। बगल में प्रभु की वृद्ध पत्नी एक स्टूल पर बैठी है। प्रभु कहते हैं कि उनकी पत्नी चलने-फिरने से लाचार है। अभी तक वृद्धापेंशन इस दम्पति को नसीब नहीं हुआ है।
पास में ही एक अन्य झोपड़ी में मिट्ठु पंडित की पत्नी बबीता देवी कहती है कि इस धंधे से किसी तरह परिवार का गुजारा हो जाता है लेकिन मेहनत के अनुसार पैसा नहीं मिलता।
बिक नहीं पाती हैं कई मूर्तियां
प्रभु पंडित एक पॉलिथिन में लिपटी एक बड़ी प्रतिमा को दिखाते हुए कहते हैं कि यह सरस्वती की प्रतिमा हैं। पिछली बार लौकही (मधुबनी) से इसका ऑर्डर मिला था। छह हजार की इस प्रतिमा के लिए एक हजार रुपये एडवांस दिया गया था लेकिन किसी कारणवश वे इस प्रतिमा को नहीं ले गए। इस तरह कई बार हम लोगों का मेहनत पर पानी फिर जाता है। कम दाम की अनबिकी प्रतिमाओं को बाद में नष्ट करना पड़ता है।