
आधुनिकता की धुंध में गुम हो रही है हमारी परम्परा
संक्षेप: इलेक्ट्रिक झालरों व इलेक्ट्रिक दीयों ने घटा दिए पारम्परिक मिट्टी के दीया की खपत इलेक्ट्रिक झालरों व इलेक्ट्रिक दीयों ने घटा दिए पारम्परिक मिट्टी के
बांका, नगर प्रतिनिधि। एक वो दौर था जब दीपावली पर हर घर, हर आंगन में पारम्परिक मिट्टी के दीयों की रौशनी बिखरी होती थी। मगर अब इस परंपरा में तेज़ी से बदलाव आ रहा है। बाज़ारों की रौनक में इलेक्ट्रिक झालरें, एलईडी दीये और रंग-बिरंगी लाइट्स ने पारंपरिक मिट्टी के दीयों की जगह ले ली है। नतीजतन समाज के कुम्हार समुदाय की रोज़ी-रोटी पर इसका सीधा असर पड़ा है। हर साल दीपावली का त्यौहार आते ही मिट्टी के दीयों की मांग बढ़ जाया करती थी। कुम्हार महीनों पहले से मिट्टी खोदने, दीये बनाने और उन्हें पकाने में जुट जाते थे। लेकिन अब हालत यह है कि शहरों से लेकर कस्बों तक इलेक्ट्रिक सजावटी सामग्री का बोलबाला है।
केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक ही मिट्टी के दीये सिमट कर रह गए हैं। जबकि आधुनिकता की दौड़ में हमारी सदियों पुरानी परंपराएं कहीं खोती जा रही हैं। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव ने युवाओं को अपनी जड़ों से दूर कर दिया है। पारंपरिक पहनावे की जगह फैशन ने ले ली है। साथ ही त्योहारों की आत्मा अब केवल सोशल मीडिया पोस्ट तक ही सीमित रह गई है। भले ही तकनीक जीवन को आसान बना रही हो, लेकिन इसके दबाव में हमारी सांस्कृतिक पहचान क्षीण होती जा रही है। बदलते समय के साथ हमें आवश्यकता है आधुनिकता की मगर इसके अतिरिक्त हमें अपने परंपरा को भी सुरक्षित रखने हेतु संतुलन बनाना होगा। आज की युवा पीढ़ी सजावट में आधुनिकता चाहती है। बाजारों में चीन निर्मित झालरों से लेकर भारतीय कंपनियों के एलईडी स्ट्रिप लाइट्स तक, हर प्रकार की रौशनी उपलब्ध है। ये न केवल आकर्षक होती हैं, बल्कि टिकाऊ भी होती हैं। इन्हें बार-बार इस्तेमाल किया जा सकता है और बिजली की खपत भी कम होती है।जबकि पारंपरिक दीयों का कम होता उपयोग हमारी सांस्कृतिक विरासत के लिए खतरे की घंटी है। मिट्टी के दीये न सिर्फ सजावट का हिस्सा हैं, बल्कि वे भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों, पर्यावरण संरक्षण और कारीगरों के जीवन से भी जुड़े हैं। वहीं मिट्टी के दीये पूरी तरह इको-फ्रेंडली होते हैं, जबकि इलेक्ट्रिक झालरों में प्लास्टिक और इलेक्ट्रॉनिक कचरा भी बढ़ता है। कुम्हारों को बढ़ावा देने के लिए सरकार और समाज दोनों को आगे आना होगा। स्थानीय मेले, स्कूलों, दफ्तरों और सार्वजनिक स्थलों पर मिट्टी के दीयों की उपयोगिता को बढ़ावा देना चाहिए। साथ ही, सरकार कारीगरों को आर्थिक रूप से मदद और प्रशिक्षण देकर उनकी कला को प्रोत्साहित कर संरक्षित करने की ओर कदम बढ़ा सकती है। साथ ही समाज का भी ये दायित्व है कि, हम अपने परंपरा के संरक्षण हेतु मिट्टी के कलाकारों को प्रोत्साहित कर विरासत को आने वाली पीढ़ी को सही सलामत सौंप सकें। बीते कुछ वर्षों से दीवाली के पारंपरिक दीपों की जगमगाहट में कुछ कमी देखने को मिली है। जिसका एक वजह केरोसिन के दाम में लगातार हो रही वृद्धि भी है। जिससे मिट्टी के दीप जलाना आजकल आम लोगों की जेब पर भारी पड़ने लगा है। गांवों से लेकर शहरों तक, दीपावली के मौके पर मिट्टी के दीप जलाने की परंपरा वर्षों से चली आ रही है। हालांकि, इन दीयों में ज्यादातर लोग केरोसिन मिलाकर तेल का इस्तेमाल करते थे। जिससे खर्च कुछ कम हो जाता था। मगर बीते कुछ वर्षों में केरोसिन की कीमतों में अचानक उछाल आने से यह विकल्प भी महंगा हो गया है। एक समय 10-15 लीटर केरोसिन से एक घर के सैकड़ों दीये जल जाते थे। मगर अब केरोसिन 90 से 100 रुपये लीटर हो गया है। जिससे मिट्टी के बने पारम्परिक दीये जलाना मध्यम वर्गीय परिवार के लिए मुश्किल हो गया है। वहीं कुछ लोग अब दीप जलाने के बजाय इलेक्ट्रिक लाइटों या LED सजावट की ओर झुकाव दिखा रहे हैं। यह न सिर्फ कम खर्चीला साबित हो रहा है, बल्कि बार-बार तेल भरने की झंझट से भी मुक्ति देता है। दीपावली की परंपरा को जीवित रखने के लिए लोग समाधान की तलाश में हैं। कुछ सामाजिक संगठन अब प्राकृतिक तेल और देशी घी से दीये जलाने की मुहिम भी चला रहे हैं, ताकि परंपरा और पर्यावरण दोनों सुरक्षित रह सकें। दीपावली रोशनी का त्योहार है, लेकिन इसकी चमक कई नन्हें जीवनों के अंत का कारण भी बनती है। बरसात के मौसम में जन्मे अनगिनत कीट-पतंगे दीपावली के समय जलते मिट्टी के दीपों की लौ की ओर आकर्षित होकर जलकर मर जाते हैं। यह एक प्राकृतिक दृश्य है, जिसे अक्सर लोग नजरअंदाज कर देते हैं, लेकिन यह जीवन और मृत्यु के चक्र का मूक प्रतीक बन गया है। मिट्टी के दीपक, जो हमारी सांस्कृतिक विरासत और आस्था का प्रतीक हैं, जब रोशन होते हैं तो उनकी लौ की तीव्र चमक और गर्मी कीट-पतंगों को अपनी ओर आकर्षित करती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो ये कीट फोटोटेक्सिस व्यवहार के कारण रोशनी की ओर खिंचते चले जाते हैं। लेकिन उनका यह आकर्षण उन्हें मृत्यु की ओर ले जाता है। प्रकृति के इस दृश्य को देखकर यह सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि हमारे त्योहारों की रोशनी कितने जीवनों की कीमत पर होती है - चाहे वो कीट-पतंगे ही क्यों न हों। पर्यावरणविदों के अनुसार, यह एक छोटा लेकिन ध्यान देने योग्य इकोलॉजिकल प्रभाव है। आज के समय में जब हम पर्यावरण के प्रति अधिक संवेदनशील हो रहे हैं, तो यह जरूरी है कि हम पारंपरिक दीपों और कृत्रिम रोशनी के संतुलन को समझें और कम से कम नुकसान पहुंचाने वाले उपाय अपनाएं। दीपावली सिर्फ रोशनी और उत्सव का पर्व नहीं है, बल्कि यह प्रकृति के प्रति हमारी जिम्मेदारियों को समझने का अवसर भी है। जलती लौ में नष्ट होते कीट-पतंगे हमें सिखाते हैं आकर्षण हर बार शुभ नहीं होता। अंततः मिट्टी के दीये और कीटों की यह परस्पर क्रिया एक ऐसी मौन कथा कहती है, जो प्रकृति और संस्कृति के द्वंद्व की मिसाल है जहां रोशनी जीवन को जगाती भी है और कुछ जीवन बुझा भी देती है। यह दृश्य हमें न सिर्फ परंपरा के प्रति आस्था, बल्कि प्रकृति के प्रति संवेदना भी सिखाता है। पूरन पंडित कहते हैं कि पहले दीपावली के दो महीने पहले से ही ऑर्डर आने लगते थे। अब तो मुश्किल से दो-चार दिन पहले ही कुछ लोग दीये लेने आते हैं, वो भी बहुत कम संख्या में। पिंटू पंडित ने कहा कि उनका कहना है कि इलेक्ट्रिक झालरों की वजह से उनकी मेहनत की कीमत नहीं मिल रही। एक दीया 1 या 2 रुपये में बिकता है, जबकि ग्राहक 50 दीयों से ज्यादा नहीं खरीदते। सुरेन्द्र पंडित ने कहा कि पहले केरोसिन सस्ते दामों में आसानी से उपलब्ध हो जाते थे। जिससे काफी लोग दिये की अधिक मात्रा में खरीददारी भी करते थे। मगर आजकल एक झालर 100 से 200 रुपये में मिल जाती है, जो कई साल चलती है और ज्यादा रौशनी भी देती है। जिससे दियों की मांग में भी काफी असर देखने को मिला है। देवनारायण पंडित ने कहा आधुनिकता की दौर में लोग अपनी परंपरा भूलने को विवश हो चुके हैं। वर्षों पहले दीपावली के समय घर के बच्चे मिट्टी से बने विभिन्न खिलौने का उपयोग खेलने के लिए करते थे। मगर आजकल इनकी मांग घटते ही जा रही है।

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