हमें अपने भीतर के नीर-क्षीर विवेक को जगाना होगा
धर्म सभी साधनों को साधने का माध्यम है। यह हमारे जीवन में तब आता है, जब हमारी आत्मा विशुद्ध हो। आत्मा की विशुद्धि विवेक के जाग्रत होने पर होती है। जिस दिन हमारे भीतर का नीर-क्षीर विवेक जाग्रत हो जाता।

मनुष्य जीवन की सार्थकता के लिए यह अत्यंत अपेक्षित है कि व्यक्ति में हेय और उपादेय का विवेक जागे। जब तक यह हंस-मनीषा जाग्रत नहीं होती है, तब तक व्यक्ति कैसे तो अच्छाई का संग्रहण कर सकेगा और कैसे बुराई का परिहार। वैसे अच्छाई और बुराई दोनों की सत्ता हर युग में किसी-न-किसी रूप में रहती ही है। हां, किसी युग में बुराई का पलड़ा भारी होता है तो किसी युग में अच्छाई का। जब-जब बुराई का पलड़ा भारी होता है, तब-तब संसार में दुख, दैन्य और विपत्तियों का नृशंस आक्रमण होता है। आज संसार की क्या स्थिति है, यह आपसे छुपा नहीं है । हिंसा का नग्न तांडव हो रहा है। झूठ, कपट, चोरी, दुराचार का साम्राज्य-सा छा रहा है । यह इस बात का प्रतीक है कि बुराई का पलड़ा भारी हो रहा है और अच्छाई का पलड़ा हलका। यदि यह दौर यों ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं, जब मानवता और दानवता के बीच भेद रेखा भी समाप्त हो जाए। मानव, मानव के रूप में अपनी प्रतिष्ठा खो दे। यह स्थिति निश्चित ही वांछनीय नहीं है ।
कोई थोड़ा भी समझदार और मानवीय प्रतिष्ठा की गरिमा को समझनेवाला व्यक्ति इस स्थिति को आने देना नहीं चाहेगा पर चाहने मात्र से तो काम नहीं बन सकता। इसके लिए तो सही दिशा में कदम उठाने की जरूरत है। हेय और उपादेय के विवेक की बात मैंने इसी परिप्रेक्ष्य में कही थी। इस विवेक के जागने के पश्चात व्यक्ति अच्छाइयों का संग्रहण करता चला जाता है और बुराइयों का विसर्जन। इस क्रम से धीरे-धीरे अच्छाइयों का पलड़ा भारी हो जाता है और बुराइयों का हलका। इसलिए यह अत्यंत अपेक्षित है कि व्यक्ति अपनी हंस-मनीषा को जगाए। इसके अतिरिक्त मानवीय प्रतिष्ठा को बचाने का कोई विकल्प नहीं है।
अच्छाइयों के संग्रहण का जहां प्रश्न है, वहां व्यक्ति को अत्यंत उदार रहना चाहिए। अच्छाई किसी के भी पास क्यों न हो, उसे ग्रहण करने में संकोच नहीं होना चाहिए। पर दुर्भाग्य से आजकल लोगों में इस संदर्भ में संकीर्ण मनोवृत्ति पनप रही है। इस आशय की शब्दावली जब-तब सुनाई देती है कि अमुक बात है तो अच्छी, पर यह अमुक व्यक्ति, अमुक मत या अमुक समाज विशेष की है, इसलिए हमारे लिए ग्राह्य नहीं है । मेरी दृष्टि में इस प्रकार की मनोवृत्ति विपर्यय के सिवाय और कुछ भी नहीं है। शब्दांतर से कहूं तो यह व्यक्ति के लिए दुर्भाग्य की बात है। यह तो और भी गंभीर बात है कि धर्मक्षेत्र में भी यह मनोवृत्ति विकसित हो रही है। अमुक धर्म की बात ठीक तो है, पर ग्राह्य नहीं, क्योंकि हमारे धर्म-संप्रदाय द्वारा यह निरूपित नहीं है। यह कैसा तुच्छ चिंतन है!
मैं पूछना चाहता हूं, क्या वर्षा का जल सर्वत्र एक सरीखा नहीं होता? घर की सीमा में बरसने वाला पानी मीठा होता है तो क्या घर से बाहर बरसनेवाला पानी मीठा नहीं होता? आप बरसात के पानी को कहीं पर भी चखकर देखेंगे तो आपको मीठा ही लगेगा। यह दूसरी बात है कि पानी यदि गंदे पात्र में गिरेगा तो गंदा कहलाएगा और स्वच्छ पात्र में गिरेगा तो स्वच्छ। पर जल के मौलिक स्वरूप से इस भेद की कल्पना करना यथार्थ नहीं। फिर गंदे पात्र का जल गंदापन दूर होते ही अपने निर्मल रूप में निखर उठेगा। इसी तरह सत्य, अहिंसा, संयम, त्याग, तपस्या मौलिक धर्म चाहे कहीं भी क्यों न हो, वह सबके लिए ग्राह्य है। नामांतर और स्थानांतर से न तो उसके स्वरूप में किसी प्रकार के अंतर की कल्पना की जा सकती है और न ही वह अग्राह्य समझा जा सकता है।
हां, यह अवश्य है कि धर्म के ठेकेदार कहलानेवाले अगर धर्म की वास्तविक मर्यादाओं के अनुकूल अपने आपको नहीं बनाते हैं तो वे अच्छे पात्र कहलाने के अधिकारी नहीं हो सकते। उनकी यह स्थिति स्वयं उनके लिए तो नुकसानदेह होती ही है, धर्म को भी बदनाम करनेवाली सिद्ध होती है । सामान्य लोग, जो यथार्थ की गहराई तक नहीं पहुंचते, उनके जीवन को देखकर धर्म के प्रति अन्यथा अवधारणा बना लेते हैं। उससे घृणा और परहेज करने लगते हैं। हालांकि ऐसा करना उचित नहीं है।
धर्म तो जीवन को विकसित और पवित्र बनाने की निर्विकल्प प्रक्रिया है; आत्म-शांति और सुख का एकमात्र साधन है। उसको स्वीकार करके ही व्यक्ति अपने जीवन को सार्थक बना सकता है। उससे घृणा और परहेज करने का तात्पर्य है— जीवन-विकास और जीवन-पवित्रता से घृणा करना, आत्म-शांति और सुख से परहेज करना। ऐसा करके तो व्यक्ति स्वयं अपने ही सौभाग्य को नष्ट करता है। इसलिए कुछेक तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के गलत आचरण और व्यवहार को देखकर धर्म के प्रति गलत अवधारणा नहीं बनानी चाहिए। उससे घृणा और परहेज नहीं करना चाहिए। धर्म कहां रहता है?
आप तत्व रूप में एक बात गहराई से समझ लें कि धर्म उसी व्यक्ति के जीवन में आ सकता है, जिसकी आत्मा एक सीमा तक विशुद्ध है। अशुद्धात्मा धर्म के लिए अपात्र है। इसलिए जिनकी आत्मा एक सीमा तक विशुद्ध नहीं है, वे धार्मिक नहीं हो सकते। भले व्यवहार में वे धार्मिक कहलाएं। इसलिए ऐसे तथाकथित धार्मिकों के जीवन-व्यवहार एवं आचरण को धर्म के आदर्श के विपरीत देखकर किसी को भी धर्म के प्रति गलत अवधारणा नहीं बनानी चाहिए।
जीवन की शांति, सुख और पवित्रता के निर्विकल्प साधन के रूप में उसे स्वीकार करने में किंचित भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। जहां कहीं भी शुद्ध रूप में धर्म का तत्व प्राप्त हो रहा हो, उसे निसंकोच और असंकीर्ण मनोवृत्ति से प्राप्त कर लेना चाहिए। संप्रदाय की सीमा उसके संग्रहण में बाधक नहीं बननी है।
