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Swami Vivekananda Jayanti 2019: मुक्ति है प्रकृति का चरम लक्ष्य

वेदांत धर्म का सबसे उदात्त तथ्य यह है कि हम एक ही लक्ष्य पर भिन्न-भिन्न मार्गों से पहुंच सकते हैं। मैंने इन मार्गों को साधारण रूप से चार वर्गों में विभाजित किया है- कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग, योगमार्ग और...

 Swami Vivekananda Jayanti 2019: मुक्ति है प्रकृति का चरम लक्ष्य
हिन्दुस्तान फीचर टीम ,नई दिल्लीTue, 08 Jan 2019 04:13 PM
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वेदांत धर्म का सबसे उदात्त तथ्य यह है कि हम एक ही लक्ष्य पर भिन्न-भिन्न मार्गों से पहुंच सकते हैं। मैंने इन मार्गों को साधारण रूप से चार वर्गों में विभाजित किया है- कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग, योगमार्ग और ज्ञानमार्ग। परंतु यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ये विभाग अत्यंत तीक्ष्ण और एक-दूसरे से नितांत पृथक नहीं हैं। प्रत्येक का तिरोभाव दूसरे में हो जाता है। किंतु प्रकार के प्राधान्य के अनुसार ही ये विभाग किए गए हैं। ऐसी बात नहीं कि तुम्हें ऐसा कोई व्यक्ति मिल सकता है, जिसमें कर्म करने के अतिरिक्त दूसरी कोई क्षमता न हो, अथवा जो अनन्य भक्त होने के अतिरिक्त और कुछ न हो, अथवा जिनके पास मात्र ज्ञान के सिवा और कुछ न हो। ये विभाग केवल मनुष्य की प्रधान प्रवृत्ति अथवा गुणप्राधान्य के अनुसार किए गए हैं। हमने देखा है कि अंत में ये सब मार्ग एक ही लक्ष्य में जाकर एक हो जाते हैं। 

वह चरम लक्ष्य क्या है? जहां तक मैं समझता हूं, वह है मुक्ति। एक परमाणु से लेकर मनुष्य तक, जड़ तत्व के अचेतन प्राणहीन कण से लेकर इस पृथ्वी की सर्वोच्च सत्ता- मानवात्मा तक, जो कुछ हम इस विश्व में प्रत्यक्ष देखते हैं, वे सब मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हमारी पृथ्वी सूर्य से दूर भागने की चेष्टा कर रही है तथा चंद्रमा, पृथ्वी से। प्रत्येक वस्तु में अनंत विस्तार की प्रवृत्ति है। सब का मूल आधार मुक्तिलाभ के लिए यह संघर्ष ही है। इसी की प्रेरणा से साधु प्रार्थना करता है और डाकू लूटता है। जब कार्यविधि अनुचित होती है, तो उसे हम अशुभ कहते हैं और जब उसकी अभिव्यक्ति उचित होती है, तो उसे शुभ कहते हैं। दोनों दशाओं में प्रेरणा एक ही होती है, और वह है मुक्ति के लिए संघर्ष। किंतु साधु जिस मुक्ति को चाहता है, उससे अनंत अनिर्वचनीय आनंद का अधिकारी हो जाता है। डाकू की इष्ट मुक्ति उसकी आत्मा के लिए दूसरे पाशों की सृष्टि कर देती है।

नि:स्वार्थ कर्म द्वारा मानव जीवन के चरम लक्ष्य, इस मुक्ति को प्राप्त कर लेना ही कर्मयोग है। हमारा प्रत्येक स्वार्थपूर्ण कार्य अपने इस लक्ष्य तक हमारे पहुंचने में बाधक होता है। तो नैतिकता की यही परिभाषा हो सकती है कि ‘जो स्वार्थी है, वह अनैतिक है और जो नि:स्वार्थी है, वह नैतिक है।'... मुक्ति केवल पूर्ण नि:स्वार्थता से ही प्राप्त की जा सकती है। 

(स्वामी विवेकानंद साहित्य संचयन' से साभार)

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