दिवाली पर विशेष: दिवाली पर लें धन का सदुपयोग करने का संकल्प
Special on Diwali: रात है अमावस की, दीयों की पंक्तियां जला लेते हैं पर दीये तो बाहर होंगे! दीये तो भीतर नहीं जा सकते। भीतर की अमावस तो भीतर ही रहती है। बाहर पूर्णिमा कितनी ही बनाओ, तुम तो भीतर जानते ह

दिवाली अंधकार और दरिद्रता को दूर करने का पर्व है। अंधकार आपके भीतर के प्रकाश से दूर होता है। दरिद्रता तब दूर होती है, जब आपके पास धन हो। लेकिन इस धन को ही भगवान मानकर इसकी पूजा न करें, बल्कि इसका सदुपयोग करें, तभी सही मायनों में दिवाली होगी
आदमी एक अंधेरा है। आदमी अमावस की रात है। तुम बाहर कितनी ही दिवाली मनाओ, भीतर का अंधेरा बाहर के दीयों से नहीं कटता, कटेगा भी नहीं। तुम अपने को कितना ही धोखा दो, अंतत पछताओगे।
हम अमावस की रात को दिवाली मनाते हैं। वह हमारे धोखे की कथा है। रात है अमावस की, दीयों की पंक्तियां जला लेते हैं पर दीये तो बाहर होंगे! दीये तो भीतर नहीं जा सकते। भीतर की अमावस तो भीतर ही रहती है। बाहर पूर्णिमा कितनी ही बनाओ, तुम तो भीतर जानते ही रहोगे कि बुझे हुए दीपक हो। तुम तो भीतर रोते ही रहोगे। तुम्हारी सब मुस्कुराहटें भी तुम्हारे आंसुओं को छुपाने में असमर्थ हैं और छुपा भी लें तो सार क्या?
इस सीधे सत्य को स्वीकार करो कि तुम बुझे हुए दीपक हो। बुझे होने की जरूरत नहीं है। होना तुम्हारी नियति भी नहीं है। ऐसा होना ही चाहिए, ऐसा कोई भाग्य का विधान नहीं है। अपने ही कारण तुम बुझे हुए हो। अपने ही कारण चांद नहीं उगा। अपने ही कारण भीतर प्रकाश नहीं जगा। कहां भूल हो गई है? कहां चूक हो गई है?
हमारी सारी जीवन-ऊर्जा बाहर की तरफ यात्रा कर रही है। इस बहिर्यात्रा में ही हम भीतर अंधेरे में पड़े हैं। यह ऊर्जा भीतर की तरफ लौटे तो यही ऊर्जा प्रकाश बनेगी। यह ऊर्जा ही प्रकाश है। तुम्हारा सारा प्रकाश बाहर पड़ रहा है। वृक्षों पर, पर्वतों पर, पहाड़ों पर, लोगों पर लेकिन तुम एक अपने पर अपनी रोशनी नहीं डालते। सबको देख लेते हो अपने प्रति अंधे रह जाते हो और सबको देखने से क्या होगा? जिसने अपने को नहीं देखा, उसने कुछ भी नहीं देखा।
भीतर का दीया कैसे जले, सच्ची दिवाली कैसे पैदा हो, कैसे तुम भीतर से चांद बनो, कैसे तुम्हारे भीतर चांदनी का जन्म हो। उसके सूत्र हैं। बड़े मधु-भरे! सुंदर ने बहुत प्यारे वचन कहे हैं, पर आज के सूत्रों का कोई मुकाबला नहीं है। बहुत रस-भरे हैं, पीओगे तो जी उठोगे। ध्यान धरोगे इन पर, संभल जाओगे। डुबकी मारोगे इनमें, तो तुम जैसे हो वैसे मिट जाओगे; और तुम्हें जैसा होना चाहिए वैसे प्रकट हो जाओगे।
जिसको तुम खोज रहे हो, तुम्हारे भीतर बैठा है। तुम्हारी खोज के कारण ही तुम उसे नहीं पा रहे हो। तुम दौड़े चले जाते हो। सारी दिशाओं में खोजते हो, थकते हो, गिरते हो। हर बार जीवन यों ही समाप्त हो जाता है। जीवन से मिलन नहीं हो पाता और जिसे तुम खोजने चले हो, जिस मालिक को तुम खोजने चले हो, उस मालिक ने तुम्हारे घर में बसेरा किया हुआ है। तुम जिसे खोजने चले हो, वह अतिथि नहीं है, आतिथेय है। खोजने वाले में ही छिपा है। वह जो गंतव्य है, कहीं दूर नहीं, कहीं भिन्न नहीं, गंतव्य की आंतरिक अवस्था है।
लेकिन अगर उसे देखना हो, अगर उसके प्रति चैतन्य से भरना हो तो आंखें उलटाना सीखना पड़ेगा। आंखें उलटाना ही ध्यान है। ध्यान साधारणतया दृश्य से जुड़ा है। ऐसा मत सोचना कि तुम्हारे पास ध्यान नहीं है। तुम्हारे पास ध्यान है। उतना ही जितना बुद्धों के पास। परमात्मा किसी को कम और ज्यादा नहीं देता। उसके बादल सब पर बराबर बरसते हैं। उसका सूरज सबके लिए उगता है। उसकी आंखों में न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है। न सिर्फ खुद जगमगाए, बल्कि इनकी जगमगाहट से और भी लोग जगमगाएंगे। दीयों से दीये जलते चले गए। ज्योति से ज्योति जले!
देखते हैं न दिवाली आती है तो लोग धन की पूजा करते हैं! धन का उपयोग तक भी ठीक था; कम-से-कम पूजा तो मत करो। कहते हैं लक्ष्मी-पूजा कर रहे हैं। धन की पूजा! इसका अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ यह हुआ कि धन परमात्मा हो गया। अब तो धन की पूजा भी हो रही है! धन का उपयोग करते; धन साधन था, उपयोगी था। मैं यह नहीं कहता कि धन उपयोगी नहीं है। धन बड़ा उपयोगी है; विनिमय का माध्यम है; हजार सुविधाएं उससे आती हैं। लेकिन पूजा! तो तुमने फिर धन में परमात्मा को देखना शुरू कर दिया। फिर तो रुपया जो है रुपया न रहा, प्रभु की प्रतिमा हो गई। अब तुम इसकी पूजा कर रहे हो, इसको नमन कर रहे हो।
जिस दिन महावीर को निर्वाण उपलब्ध हुआ, उस दिन जैन दीपावली मनाते हैं। जिस दिन महानिर्वाण हुआ, उस दिन उनकी ज्योति दीये से मुक्त हुई। उस दिन करोड़ों-करोड़ों दीये जलाते हैं। अमावस की रात महावीर ने ठीक रात चुनी। अमावस की अंधेरी रात! सब तरफ अंधकार है और महावीर प्रकाश हो गए। उस अंधकार में वह प्रकाश, ठीक विरोध के कारण प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ा।
