पूर्णता की ओर आत्मा की यात्रा, दो में से एक रास्ते को चुनें
आत्मिक पूर्णता की ओर जाने के दो रास्ते हैं। एक, हम अपनी इच्छाओं को संपूर्णता में पूर्ण करें, ताकि कोई इच्छा ही शेष न रहे। दूसरे, हम अपने ज्ञान से उन इच्छाओं का शमन कर सकें, जो हमें किसी-न-किसी रूप में
आत्मिक पूर्णता की ओर जाने के दो रास्ते हैं। एक, हम अपनी इच्छाओं को संपूर्णता में पूर्ण करें, ताकि कोई इच्छा ही शेष न रहे। दूसरे, हम अपने ज्ञान से उन इच्छाओं का शमन कर सकें, जो हमें किसी-न-किसी रूप में भटकाती हैं। इस भटकाव के खत्म होते ही मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पा जाता है और आत्मा की पूर्णता की ओर यात्रा आरंभ हो जाती है।
छोटी-छोटी अथवा कम महत्त्वपूर्ण इच्छाओं को संतुष्ट कर देना अच्छा है , क्योंकि इस प्रकार हम उनसे पीछा छुड़ा सकते हैं, परंतु ऐसा करने के लिए ज्ञान और विवेक की आवश्यकता है ।
आत्माएं अपूर्ण ब्रह्म के साथ दिव्य एकत्व के प्रति अनजान अवस्था में रह रही हैं, वे भौतिक शरीर की मृत्यु के उपरांत स्वत ही ईश्वरानुभूति की अवस्था में प्रवेश नहीं करतीं। हम ईश्वर के प्रतिबिंब में तो बने हैं, परंतु भौतिक शरीर के साथ तादात्म्य होने के कारण हमने इसकी अपूर्णताओं और सीमाओं को धारण कर लिया है। जब तक नश्वरता की इस अपूर्ण मानवीय चेतना को दूर नहीं कर दिया जाता, हम पुन देवता नहीं बन सकते।
एक राजकुमार अपने राजमहल से भाग गया और उसने किसी गंदी बस्ती में आश्रय ले लिया। मादक पदार्थों के सेवन और बुरी संगति के परिणामस्वरूप, वह धीरे-धीरे अपनी वास्तविक पहचान को भूल गया। जब तक उसके पिता उसे खोज कर अपने राजमहल में वापस नहीं ले गए, उसे यह याद नहीं आया कि वह सचमुच एक राजकुमार था।
उसी प्रकार, हम सब विश्व के राजा की संतान हैं, जो अपने आध्यात्मिक गृह से दूर भाग आए हैं। हमने अपनी आत्मा को मानवीय शरीरों में इतने अधिक समय से कैद कर रखा है कि हम अपनी दिव्य कुल परंपरा को भूल गए हैं। जितनी बार भी हम पृथ्वी पर आए हैं, हमने नई अपूर्णताएं और नई इच्छाएं उत्पन्न कर ली हैं। इसलिए हम यहां बार-बार आते हैं, जब तक कि हम समस्त इच्छाओं को पूरा नहीं कर लेते या ज्ञान की वृद्धि से उन इच्छाओं का त्याग नहीं कर देते। हमें अपनी इच्छाएं संतुष्ट करनी पड़ेंगी अथवा ज्ञान के विकास द्वारा उन्हें पूरी तरह से दूर करना होगा। तथापि बहुत ही कम लोग अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करने के प्रयास से जन्म-मृत्यु के चक्र से बच पाते हैं। इच्छा की यह प्रकृति है कि हर बार जब व्यक्ति इसे संतुष्ट करता है, उस अनुभूति को दोहराने की लालसा उसकी पकड़ को और भी अधिक मजबूत कर देती है, जब तक कि व्यक्ति का मन बहुत बलशाली न हो।
छोटी-छोटी अथवा कम महत्त्वपूर्ण इच्छाओं को संतुष्ट कर देना अच्छा है, क्योंकि इस प्रकार हम उनसे पीछा छुड़ा सकते हैं, परंतु ऐसा करने के लिए ज्ञान और विवेक की आवश्यकता है अन्यथा छोटी इच्छाएं भी अनुभव द्वारा सुदृढ़ होकर और अधिक शक्ति से वापस आ सकती हैं। उदाहरण के लिए, जो लोग शराब पीने की इच्छा रखते हैं, वे प्राय इस प्रकार तर्क देते हैं कि मैं केवल आज जी भर कर पी लूंगा और कल से नहीं पीऊंगा। इस अनुभव को दोहराने के पश्चात प्राय परिणाम यह होता है कि उन्हें पता चलता है, उनमें वह आदत बन गई है और फिर उससे पीछा छुड़ाना कठिन हो जाता है।
ईश्वर कोई तानाशाह नहीं है, जिन्होंने हमें यहां भेजा है और हमें बता रहे हैं कि क्या करना है। जैसा हम चाहते हैं, वैसा करने की उन्होंने हमें स्वतंत्र इच्छा दे रखी है। हम अच्छा बनने के महत्त्व पर बहुत कुछ सुनते हैं, परंतु यदि हम सब को मरने के बाद सीधे स्वर्ग ही जाना है, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, यहां अच्छे कार्य करने का क्या लाभ है? यदि जीवन के अंत में प्रत्येक व्यक्ति को बराबर का ही प्रतिफल मिलना है तो फिर एक लोभी, स्वार्थी व्यक्ति क्यों न बनें, क्योंकि बुराई का रास्ता अपनाना प्राय सबसे आसान होता है। यदि हम सबको मरने के पश्चात चाहे हम अच्छे हों अथवा बुरे, देवदूत ही बनना है तो महान संतों के जीवन का अनुसरण करने से कोई लाभ नहीं होगा।
वहीं, यदि ईश्वर की योजना में हम सब को नर्क में ही जाना है तो भी इस जीवन में व्यवहार पर चिंता करने का कोई लाभ नहीं। व्यक्ति को अपने कार्यों की निगरानी रखने का भी क्या लाभ होगा, यदि हमारा जीवन स्वचालित गाड़ी की तरह है। एक बार वे पुराने हो जाएं तो उन्हें कूड़े के ढेर पर फेंक दिया जाता है, और यही उनका अंत है। यदि मनुष्य का जीवन मात्र यही है तो धर्मशास्त्र पढ़ने का या आत्म-नियंत्रण के अभ्यास का कोई लाभ नहीं।