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सावन कथा 20: गणेश जी का जन्म, पिता शंकर जी से युद्ध

माता से बढ़कर कोई भक्ति नहीं होती। गणेश जी तो माता के परम भक्त थे। अपनी मातृ भक्ति के कारण ही वह शंकर जी और उनके गणों से भी भिड़ गए। कथा आती है कि एक बार माता पार्वती को यह अनुभव हुआ कि उऩको भी अपना...

सावन कथा 20: गणेश जी का जन्म, पिता शंकर जी से युद्ध
सूर्यकांत द्विवेदीTue, 21 Aug 2018 11:02 PM
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माता से बढ़कर कोई भक्ति नहीं होती। गणेश जी तो माता के परम भक्त थे। अपनी मातृ भक्ति के कारण ही वह शंकर जी और उनके गणों से भी भिड़ गए। कथा आती है कि एक बार माता पार्वती को यह अनुभव हुआ कि उऩको भी अपना गण बनाना चाहिए। कई बार स्त्रीजनित चीजों पर इसकी आवश्यकता पड़ती है। सखिय़ों ने भी उनसे अनुरोध किया कि द्वार पर हमेशा शिव के गण होते हैं। आपको अपने गण नियुक्त करने चाहिएं। इससे स्त्री के मान-मर्यादा की भी रक्षा होगी। पार्वती जी को यह विचार अच्छा लगा। एक बार वह स्नान कर रहीं थीं तो उन्होंने अपने मैल से गणेश जी की उत्पत्ति की। साक्षात एक विलक्षण बालक सामने आ गया। बालक ने देवी को प्रणाम किया और पूछा, बताओ, मां मेरे लिए क्या आदेश है। पार्वती जी ने उनको अपना गण नियुक्त कर दिया।

देवी ने यह भी कहा कि कोई भी क्यों न आए, लेकिन मेरी अनुमति के बिना किसी को आने मत देना। गणेश जी तो मातृभक्त थे। वह दंड लेकर खड़े हो गए। शिवजी के  गणों को भी उन्होंने रोक दिया। गण दौड़कर भगवान शँकर के पास पहुंचे और उनको पूरा वृतांत कह सुनाया। शंकर जी ने कहा, ऐसा नहीं हो सकता। कोई दूसरा कैसे गण नियुक्त हो सकता है। अवश्य तुमको भ्रम रहा होगा। शिव के गण फिर द्वार पर पहुंचे लेकिन इस बार भी गणेश जी ने उनको अंदर जाने से रोक दिया। गणों ने कहा, तुम जानते नहीं हो कि हम शिव के गण हैं। गणेश जी बोले, मैं जानता हूं। लेकिन मुझे मेरी मां की तरफ से आदेश मिला है कि मैं किसी को अंदर प्रवेश नहीं कर दूं। मैं इसी आज्ञा का पालन कर रहा हूं। गण पुन: शंकर जी के पास पहुंचे। कालांतर में शिव के गणों के साथ गणेश जी का युद्ध हुआ। गणेश जी से सारे देवता हार गए। एक बालक से हारकर देवताओं को बहुत ग्लानि हुई। उनको लगा कि हमारे देवता होने का क्या लाभ। एक  बालक ने हमको हरा दिया। देवताओं ने ब्रह्मा जी से कहा कि आप जाइये और बालक को मनाइये।

ब्र्रह्मा जी बालक के पास पहुंचे लेकिन बालक ने ब्रह्मा जी को भी कह दिया कि अंदर प्रवेश तब तक नहीं होगा, जब तक कि मेरी माता का आदेश मुझे नहीं मिल जाता। ब्रह्मा और विष्णु दोनों के साथ गणेश जी की वार्ता असफल रही। दोनों ने भगवान शंकर से कहा कि बड़ा अद्भुत बालक है। किसी की सुनता नहीं है। महापराक्रमी है। सब देवताओं को उसने युद्ध में हरा दिया। आपके भी गणों के उसने हरा दिया है। आप ही कुछ निदान करिए।

ऐसे लगी गणपति के सूंड
जब सभी गण और देवता हार गए तो भगवान शंकर स्वयं द्वार पर गए। गणेश जी उनको पहचान नहीं सके। गणेश जी ने उनको भी प्रवेश नहीं करने दिया। शंकरजी ने क्रोध में आकर उनका शिरोच्छेदन कर दिया। यह सूचना पार्वती जी को लगी तो वह विलाप करने लगीं। उन्होंने अपने प्रकाश पुंज से उन समान अपनी शक्तियां प्रगट कीं। शक्तियां विध्वंस करतीं, इससे पहले ही शंकरजी ने पार्वती जी को मना लिया। पार्वती इसी शर्त पर मानी कि पहले आप मेरे गणेश पुराने स्वरूप में लाओ। जो शिरोच्छेदन किया है, उसे सही करो। शंकरजी ने अपने गणों से कहा कि उत्तर दिशा में जो भी मिले, उसका सिर ले आओ। गण गए। उत्तर दिशा में एक दन्त हाथी मिला, गण उसी को ले आए। इस तरह गणेश के मुख पर हाथी की सूंड सुशोभित हो गई। नाम पड़ा-गजानन। अंततोगत्वा पार्वती जी के कहने पर ही शंकर जी को घर में प्रवेश मिला।

शंकर जी की सीख
-माता से बढ़कर कोई पूजा नहीं होती
-स्त्री का सत्कार करना चाहिए, फिर चाहे कोई हो
-पति को भी पत्नी धर्म का पालन करना चाहिए
-इस कथा के पीछे मूल भाव स्त्री रक्षा और मान-मर्यादा की रक्षा है
-गणों की नियुक्ति से आशय, स्त्री के मान-बिंदुओं की रक्षा करना है

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