ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी हैं सरस्वती
सरस्वती क्या हैं? कैसे इनके द्वारा मानव का कल्याण हो सकता है? सरस्वती ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी हैं। भारतीय धर्म की सब धाराएं सरस्वती की उपासना करती हैं। वैदिक धर्म में सरस्वती, जैन धर्म में...
सरस्वती क्या हैं? कैसे इनके द्वारा मानव का कल्याण हो सकता है? सरस्वती ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी हैं। भारतीय धर्म की सब धाराएं सरस्वती की उपासना करती हैं। वैदिक धर्म में सरस्वती, जैन धर्म में श्रुतदेवता और बौद्ध धर्म में प्रज्ञा देवी के नाम से सरस्वती की ही उपासना की जाती है। प्रज्ञा ज्ञान की देवी हैं।
बुद्ध भगवान को तपश्चर्या और समाधि के फलस्वरूप जो उपलब्धि हुई थी, उसकी संज्ञा बुद्धि या प्रज्ञा है। प्रज्ञा ही मानव की सबसे बड़ी विशेषता है। यों तो भौतिक शक्ति और कर्म की शक्ति की भी बहुत बड़ी महिमा है, किन्तु प्रज्ञा या मन की शक्ति इन सबसे ऊपर है। एक सूत्र में ‘मन ही मनुष्य है।’ मन के दो स्वरूप हैं। एक प्रत्येक व्यक्ति में बंटा हुआ अपना-अपना मन है। जीवन का जितना विकास है, वह सब व्यक्ति के निजी मन से ही होता है। संसार में जितने व्यक्ति हैं, उतने ही प्रकार के मन हैं।
प्रत्येक केंद्र में अपनी-अपनी प्रज्ञा है। इन प्रज्ञाओं के अनंत भेदों का कोई लेखा-जोखा नहीं हो सकता। जिस प्रकार सृष्टि में और सब वस्तुएं अंत-रहित हैं, वैसे ही प्रज्ञा मन या बुद्धि के असंख्य भेद हैं। इन बुद्धियों का स्वरूप क्या है? इस प्रश्न पर हम विचार करने लगें तो ज्ञात होता है कि बुद्धि या मन कोई स्थूल वस्तु नहीं। शरीर को तो हम भौतिक रूप में देख पाते हैं, किन्तु उसके भीतर रहने वाली जो प्रज्ञा है, वह तो एक सूक्ष्म शक्ति है। व्यक्ति की इस प्रज्ञा या बुद्धि को सीधी-साधी भाषा में व्यष्टि मन कहते हैं। जितने व्यक्ति हैं, उतने ही व्यष्टि मन हैं। अब कल्पना कीजिए उस उद्गम या स्नेत की, जिसमें जितने भी प्रकार की बुद्धियां या मन हैं, वे सब एक साथ जुड़े हों या जिनका अधिष्ठान एक ही स्थान में हो। ऐसी प्रज्ञा-शक्ति के विशिष्ट भंडार को समष्टि मन कहा जाएगा। सृष्टि की रचना के मूल में अवश्य ही इस प्रकार का समष्टि मन विद्यमान है, जो अत्यंत शक्तिशाली है, जिसकी महिमा सबसे ऊपर है और जिसमें व्यक्तियों के अलग-अलग भेद समाए हुए हैं। इस प्रकार के समष्टि मानस को हम देवता कह सकते हैं। व्यष्टि मन की सीमा है और जिसकी सीमा है उसका अंत है।
किन्तु जो असीम और अपरिमित है, जिसकी शक्ति अमृत और अनंत है, वह देवता कहलाता है। उसे किसी भी नाम से पुकारें, वही अमृत तत्व है। सब धर्म, दर्शन, आचार, अध्यात्म, नीति, साहित्य, कलाएं मानव की व्यक्तिगत बुद्धि में भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, किन्तु अपने समष्टि रूप में वे एक विराट मानस तत्व में लीन हैं। उसी महती शक्ति को हम ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की संज्ञा देते हैं। उस सरस्वती का वाहन हंस है। व्यक्ति की जो अपनी-अपनी बुद्धि या मन है, जिसे ‘अहं’ कहते हैं, वही हंस है। यदि विराट ज्ञान को मूर्तरूप देना हो, अर्थात् उसे किसी एक केन्द्र में प्रकट करना हो तो मन रूपी हंस के बिना यह संभव नहीं। सरस्वती का आह्वान हंस के द्वारा ही संभव है। सरस्वती को सर्व-शुक्ला कहा गया है। यह शुक्ल वर्ण या ज्योति का रूप है, जिसे ज्ञान कहते हैं। ज्ञान एक ज्योति है, जो प्रत्येक मानस में अभिव्यक्त होती है। सृष्टि के आरंभ से आज तक मानव के मन में ज्ञान रूपी ज्योति का कितने प्रकार से उदय हुआ है, इसकी केवल कल्पना की जा सकती है।
अनेक ऋषि, मुनि, बुद्ध, बोधिसत्व, अहृत, सिद्ध, आचार्य, इसी ज्ञान ज्योति की उपासना करते रहे हैं। सरस्वती शब्द भी ध्यान देने योग्य है। जो सरोवर से जन्म लेती है, उसे सरस्वती कहते हैं। यह सरोवर क्या है और कहां हैं? ऊपर जिस समष्टि मन का उल्लेख किया गया है, वही यह सरोवर है। उसे कोई प्रगट रूप में देख नहीं पाता। इसलिए उसे बुद्धि का अव्यक्त सरोवर कहा जाता है। ऋषियों ने उसे ही ‘ब्रह्म सर’ कहा है। वेद उसे ही सोने का कुआं (हिरण्यय उत्स) भी कहते हैं (उत्सो देव हिरण्यय: ऋग्वेद)। वहां सुवर्ण का तात्पर्य चमकने वाली स्थूल और बोङिाल वस्तु नहीं, बल्कि वही अध्यात्म तत्व है, जिसे मन कहते हैं और जिसकी चमकती हुई सुनहली किरणों में सारे जीवन का मूल्य समाया हुआ है। ऊपर ज्ञान का स्वरूप ज्योति या प्रकाश कहा गया है। उसे ही प्रकारांतर से जल भी कह सकते हैं।प्रत्येक व्यक्ति का मानस उस विराट ज्ञान सरोवर का एक सीमित, परिमित अंश है। अथवा इसे यों कहा जाए तो उचित होगा कि व्यक्ति का मन एक कमंडलु के समान है। यह कमंडलु उसी विराट ज्ञान सरोवर के जल से भरा हुआ है। जन्म से मृत्यु पर्यन्त इसी कमंडलु के जल की बूंदों से हम अपने जीवन का विकास करते रहते हैं। जो समष्टि का जल है, वह नित्य स्वच्छ रहता है। उसमें भावों के मल नहीं रहते।
उसकी निर्मलता ही उसका माधुर्य और अमृत स्वाद है। पर जैसे ही वह जल एक व्यक्ति के मानस -पात्र में आता है, वह सीमित हो जाता है। व्यक्ति के राग और द्वेष उसे मैला कर देते हैं। अतएव आवश्यक है कि व्यक्ति इस विषय में सावधान रहे, सदा अपने मन को सरस्वती या विराट ज्ञान के चिंतन से स्वच्छ बनाता रहे। जिस प्रकार अनेक पात्रों में रखे हुए जलों में अलग-अलग बूंदें लेकर उन्हें एक में मिलाया जा सकता है, ऐसे ही व्यक्ति के मन के साथ नित्य प्रतिक्रिया होती रहती है। अपने विचार हम दूसरों को देते रहते हैं, दूसरों के संस्कार हम अपने भीतर लेते रहते हैं। इस तरह जितने व्यक्तियों से संपर्क में आते हैं, उनके मानस का जल हमारे मानस में अनायास मिल जाता है। किन्तु आवश्यक है कि मनुष्य अपने मानस के जल को स्वच्छ और निर्मल रखे, दूसरों के संपर्क में आने से अपने मानस में किसी तरह की उष्णता या हरारत या प्रतिकूल प्रतिक्रिया उत्पन्न न होने दे।
यही उत्तम और संयत मन का लक्षण है। ऐसे मन की आवश्यकता हमें अपने कल्याण के लिए सबसे अधिक है। ऐसा ही स्वच्छ मन उस समष्टि मन के निकट होता है, जिसे ऊपर देव या अमृत तत्व कहा गया है। जिस सरस्वती के मंदिर का हम निर्माण करते हैं, वह ईंट पत्थर का ढेर नहीं, बल्कि ज्ञान की अधिष्ठाती देवता का एक प्रतीक है। उस प्रतीक के द्वारा हम उस देवता के स्वरूप का परिचय प्राप्त करते हैं। सरस्वती के मंदिर में संचित ग्रंथराशि एक स्थूल प्रतीक मात्र है। यह शब्दराशि निस्संदेह उस स्नेत से अवतीर्ण हुई है, जिसका उल्लेख ऊपर अव्यक्त ब्रह्म सर या समष्टि मन के नाम से किया गया है, जो मन की शक्ति के द्वारा जीवन के निर्माण की कला में निपुण है, उसी के लिए सरस्वती के मंदिर का ध्येय चरितार्थ होता है। इस तरह का आयोजन धर्मो के बाहरी नाम और रूपों से कहीं ऊपर है। यह ऐसी विराट् मानवीय संस्कृति है, जिसकी आराधना सबके लिए है।
(‘वासुदेव शरण अग्रवाल रचना-संचयन’ के ‘सरस्वती’ अध्याय के कुछ अंश। साभार: साहित्य अकादेमी)