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साधना से मिलती है परमपुरुष की निकटता

सभी जीवों की रचना परमपुरुष ने की है, इसलिए वह सभी जीवों को समान दृष्टि से देखते हैं। लेकिन जब जीव परमात्मा की ओर से अपनी दृष्टि हटा लेता है, तो वह उनसे दूर होता जाता है। अपने लक्ष्य से दूर होता जाता...

साधना से मिलती है परमपुरुष की निकटता
हिन्‍दुस्‍तान टीम,नई दिल्लीTue, 12 Feb 2019 11:54 AM
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सभी जीवों की रचना परमपुरुष ने की है, इसलिए वह सभी जीवों को समान दृष्टि से देखते हैं। लेकिन जब जीव परमात्मा की ओर से अपनी दृष्टि हटा लेता है, तो वह उनसे दूर होता जाता है। अपने लक्ष्य से दूर होता जाता है। साधना इस दूरी को पाटने का काम करती है। 

राट पुरुष से आई चेतना और चेतना से आया जड़। फिर परमपुरुष के आकर्षण से वह जड़ विभिन्न अभिव्यक्तियों, विभिन्न वैयष्टिक अभिप्रकाशों के माध्यम से परमपुरुष की ओर अग्रसर होता है। हो सकता है, चलने के पथ पर किसी की गति बहुत तेज हो, किसी की धीमी हो, किसी की शिथिल हो- किन्तु वह आगे बढ़ रहा है- जब तक उसे मनुष्य का शरीर नहीं मिल पाता है, उसे आगे बढ़ते ही रहना होगा। इसलिए किसी भी मनुष्य को किसी भी अवस्था में यह नहीं सोचना चाहिए कि चलते समय अगर वह फिसल गया या पीछे रह गया, तो उसका चलना खत्म हो गया। मनुष्य का चलना चलता ही रहेगा, रुकेगा नहीं।

आज जिस मनुष्य का पतन हो गया है, वह एक काल में महापुरुष हो सकता है और होगा भी! क्यों नहीं होगा? इसलिए किसी भी मनुष्य के जीवन में कभी भी हताश होने का कोई कारण नहीं है- परमपुरुष उसे बुला रहे हैं। बुलाते रहते हैं और बुलाते रहेंगे- उनकी स्नेहमयी गोद में प्रत्येक मनुष्य को आश्रय मिलेगा ही। कोई भी उनके लिए घृणा का पात्र नहीं है, तुच्छ नहीं है। इसलिए ‘तुम किसके हो'- इसका एक ही उत्तर है कि ‘मैं परमपुरुष का हूं। मैं केवल परमपुरुष का ही हूं, मैं और किसी का नहीं हूं, क्योंकि उन्हीं से मैं आया हूं, उन्हीं में लौट जाऊंगा।' कहां से आए हो? उस प्रश्न का भी एक ही उत्तर है, ‘मैं परमपुरुष के पास से आया हूं और उन्हीं में लौट जाऊंगा। वे ही मेरे स्थायी निवास हैं।' .

परमपुरुष का एक नाम है ‘श्रीनिवास'। लौकिक अर्थ में श्रीशब्द का अर्थ होता है आकर्षणीय सत्ता यानी वह सत्ता, जो सबको अपनी ओर आकर्षित करती है। श्री का जो परम निधान है, वे हैं श्रीनिवास। उसी में प्रत्येक मनुष्य लौट जाएगा- आज हो, कल हो, या परसों हो और वही उसका आनन्दधाम है। वही उसकी परागति है।.

कई बार मनुष्य हताशा से ग्रस्त हो जाता है। इसका एकमात्र कारण है कि मनुष्य अपने लक्ष्य को भूल जाता है। वह अगर अपने लक्ष्य की ओर देखता है, तो सभी हताशाएं समाप्त हो जाती हैं। प्रत्येक मनुष्य अपनी सृष्टि होने के साथ-साथ परमात्मा के मन में निवास करता है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य जैसे-जैसे चेतना की ओर आगे बढ़ता है, परमपुरुष उसे देखते रहते हैं। परन्तु मनुष्य उनकी ओर नहीं देखता है। यह मनुष्य परमपुरुष से कह सकता है कि तुम मुझे हाथ पकड़ कर ले चलो, किन्तु यह बात कहने की आवश्यकता ही नहीं है, क्योंकि परमपुरुष मनुष्य का हाथ पकड़े हुए हैं। मनुष्य जब जोर-जबर्दस्ती करके उनका हाथ छोड़ कर चलना चाहता है, तब वह गिर पड़ता है। यह परमपुरुष का दोष नहीं है। परमपुरुष प्रत्येक मनुष्य के साथ रहते हैं। उनके साथ चलने का यह जो भाव है, इसी को कहा जाता है उनका ‘ओत योग'। और सारे विश्व ब्रह्मांड को लेकर वह एक ही साथ समग्र रूप से देखते हैं और इसी समग्र रूप से देखने को कहा जाता है उनका ‘प्रोत योग'। अर्थात् वे जीव के साथ ओत-प्रोत भाव से रहते हैं, विच्छिन्न भाव से नहीं यानी वे दूर नहीं हैं। तो ‘तुम कौन हो' का उत्तर हुआ- ‘मैं परमपुरुष का हूं।' और ‘कहां से आए हो' का उत्तर हुआ ‘परमपुरुष से आया हूं।' उस विश्व ब्रह्मांड के केन्द्र बिन्दु से उस चक्रनाभि से जीव निकल आया है, अब उसे लौट जाना होगा। अपने असल घर में यानी श्री निवास में, जो उसका स्थायी आश्रय है। 

इस परमपुरुष के चारों ओर जड़ और चेतन सभी घूम रहे हैं- कोई जान कर, कोई अनजाने में। जो घूम रहा है, वह विभिन्न प्रकार के चिंतन, भावना, ध्यान-धारणा लेकर घूम रहा है- विभिन्न प्रकार की संरचना लेकर, विभिन्न प्रकार का शरीर लेकर घूम रहा है। उसका यह घूमना कब समाप्त होगा? जब वह समझ लेगा कि परमपुरुष मेरे हैं, मैं परमपुरुष का हूं- तभी वह परमपुरुष के साथ मिल-जुल कर एक हो जाएगा। मनुष्य जितनी अधिक साधना करेगा, परमपुरुष से उसकी दूरी उतना ही कम होती जाएगी। जब दूरी नहीं रहेगी, तब जीव शिव हो जाएगा। यही है जीव की परागति। 

प्रस्तुति: दिव्यचेतनानन्द अवधूत

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