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जानिए भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को कैसे समझाया, सच्ची तीर्थयात्रा का मतलब

महाभारत  का युद्ध समाप्त हो चुका था। दोनों ही पक्षों से असंख्य सैनिक मारे गए। युद्ध के पश्चात पांडवों का मन अशांत था। इससे मुक्ति पाने के लिए उन्होंने तीर्थ यात्रा पर जाने का निश्चय किया। उन्होंने श्र

जानिए भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को कैसे समझाया, सच्ची तीर्थयात्रा का मतलब
Anuradha Pandeyलाइव हिन्दुस्तान,नई दिल्लीTue, 09 May 2023 09:52 AM
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आत्मतीर्थ में स्नान करने से दूर होते हैं दोष

महाभारत  का युद्ध समाप्त हो चुका था। दोनों ही पक्षों से असंख्य सैनिक मारे गए। युद्ध के पश्चात पांडवों का मन अशांत था। इससे मुक्ति पाने के लिए उन्होंने तीर्थ यात्रा पर जाने का निश्चय किया। उन्होंने श्रीकृष्ण से तीर्थ यात्रा पर जाने के लिए अनुमति मांगी। भगवान ने उन्हें तीर्थ यात्रा पर जाने की अनुमति देते हुए कहा कि मैं तुम्हारे साथ नहीं जाऊंगा। भगवान ने पांडवों से कहा कि तुम्हें तीर्थ पर जाना है तो अवश्य जाओ लेकिन युद्ध से तुम्हें जो पाप लगा है, तुम्हारे चित्त और मन में जो क्षोभ हुआ है, वह तीर्थ यात्रा से दूर नहीं होगा। लेकिन तुम लोग मेरा एक काम करना। मेरा यह तुंबा भी अपने साथ लेते जाओ और अपने साथ-साथ मेरे तुंबे को भी सभी तीर्थों में स्नान करवाना।

श्रीकृष्ण की बात मानकर युधिष्ठिर ने तुंबे को अपने साथ ले लिया। इसके पश्चात पांचों पांडव द्रौपदी सहित तीर्थ यात्रा पर चल दिए। अपनी यात्रा के क्रम में उन्होंने जिस-जिस तीर्थ में स्नान किया, वहां-वहां कृष्ण के दिए तुंबे को भी स्नान करवाया। पांडव अपनी तीर्थ यात्रा को पूर्ण कर वापस आ गए। भगवान ने उनसे अपना दिया हुआ तुंबा मांगा और पूछा कि इसे भी उन्होंने तीर्थों में स्नान करवाया है न? युधिष्ठिर ने ‘हां’ में जवाब दिया।

भगवान ने तुंबे कोे पीस कर उसका चूर्ण बना दिया और प्रसाद के रूप में पांचों पांडवों को खाने को दिया। तुंबे का चूर्ण मुंह में रखते ही पांचों भाइयों ने उसे थूक दिया। भगवान ने उनसे इसका कारण पूछा। पांडवों ने कहा प्रभु यह तो कड़वा है। तब भगवान ने कहा सब तीर्थों के स्नान कराने के बावजूद इसका स्वाद कड़वा ही रहा। उनका पवित्र जल भी इसके स्वाद को नहीं बदल पाया। श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाते हुए कहा कि इस तुंबे को तुमने बाहर से ही स्नान करवाया, वह जल इसके भीतर नहीं गया। इसलिए यह कड़वा रहा। इसी प्रकार तीर्थों में स्नान करने से तुम्हारा शरीर तो पवित्र हो गया, लेकिन इससे तुम्हारा मन पवित्र नहीं हो पाया। चित्त के दोष तो सिर्फ आत्मरूपी तीर्थ में स्नान करने से ही दूर होते हैं, इसलिए सच्चा तीर्थ तो आत्मतीर्थ ही है।

अश्वनी कुमार

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