सुहाग की लंबी उम्र के लिए 17 को करवा भरेंगी सुहागिनें, जानें क्या है करवा चौथ व्रत कथा
कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्थी, 17 अक्तूबर को कर्क चतुर्थी के दिन करवा-चौथ का व्रत किया जाएगा। सुहाग की रक्षा के लिए यह व्रत महिलाएं रखती हैं। कर्क चतुर्थी 17 अक्तूबर की सुबह 6 बजकर 48 मिनट पर लगेगी।...
कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्थी, 17 अक्तूबर को कर्क चतुर्थी के दिन करवा-चौथ का व्रत किया जाएगा। सुहाग की रक्षा के लिए यह व्रत महिलाएं रखती हैं। कर्क चतुर्थी 17 अक्तूबर की सुबह 6 बजकर 48 मिनट पर लगेगी। चंद्रोदय शाम 6 बजकर 41 मिनट पर होगा इसके बाद अर्घ्य के विधान से करवाचौथ पूजन पूरा होगा। चतुर्थी तिथि 18 अक्तूबर को प्रात: सात बजकर 29 मिनट तक रहेगी।
केवल सुहागिनों के लिए होता है यह व्रत-
केवल सुहागिनों को ही यह व्रत करने का अधिकार है। सुहागन किसी भी आयु, जाति, वर्ण या संप्रदाय की हो, वह व्रत की अधिकारिणी है। पं. विष्णुपति त्रिपाठी के अनुसार शास्त्रों में इस व्रत को 12 वर्ष अथवा 16 वर्ष तक लगातार करने का विधान है। यह अवधि पूरी होने के बाद इस व्रत का उद्यापन (उपसंहार) किया जाता है। इस बात की छूट भी है कि एक बार उद्यापन करने के बाद सुहागिनें आजीवन भी यह व्रत कर सकती हैं।
करवा चौथ का शुभ मुहूर्त-
06 बजकर 48 मिनट पर सुबह 17 अक्तूबर को लगेगी चतुर्थी
06 बजकर 48 मिनट पर शाम को होगा चंद्रमा का उदय
रखी जाएंगी सुहाग की निशानियां-
करवा चौथ व्रत में सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया करवा भरने की होती है। करवा मिट्टी और पीतल का विशेष पात्र होता है जिसमें महिलाएं सुहाग की समस्त निशानियां सजा कर रखती हैं। इनमें सिंदूर, मंगलसूत्र, चूड़ी, आलता, बिंदी, वस्त्र सहित शृंगार की अन्य सामग्री होती हैं। करवा में चांदी और सोने के आभूषण भी सजाए जाते हैं।
करवा चौथ की व्रत कथा-
करवा चौथ की कथा इंद्रप्रस्थ नगरी के वेदशर्मा नामक ब्राह्मण परिवार की पुत्री से जुड़ी है। सात भाइयों में अकेली बहन वीरावती का विवाह सुदर्शन नामक ब्राह्मण के साथ हुआ। वीरावती ने एक बार करवा चौथ का व्रत अपने मायके में किया। पूरे दिन निर्जल रहने के कारण वह निढाल हो गई। उसके भाइयों से उसकी यह दशा नहीं देखी गई। उन्होंने खेत में आग लगा कर समय से पहले ही नकली चांद उदय करा दिया।
वीरावती की भाभियों ने उसे चांद निकलने की बात बता कर अर्घ्य दिलवा दिया। उसके बाद से वीरावती का पति लगातार बीमार रहने लगा। उसने इंद्र की पत्नी इंद्राणी का पूजन कर उनसे समाधान मांगा। उन्होंने व्रत के खंडित होने की बात बताई और पुन: विधि विधान से व्रत करने की सलाह दी। वीरावती ने वैसा ही किया। इससे उसका पति ठीक हो गया। उसी समय से यह व्रत लोक प्रचलन में आ गया।