आज कार्तिक मास की पूर्णिमा है। मान्यता है कि इस दिन भगवान विष्णु की खास पूजा और व्रत करने से घर में यश और कीर्ति की प्राप्ति होती है। इस बार कार्तिक पूर्णिमा पर कृत्तिका नक्षत्र होने से इसका महत्व और बढ़ गया है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन दीपदान और गंगा स्नान का विशेष महत्व है कार्तिक पूर्णिमा के दिन लोग सुबह सवेरे उठकर गंगा स्नान करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि इस दिन गंगा में स्नान करने से जन्म-जन्म के पापों से मुक्ति मिलती है। कार्तिक पूर्णिमा को गंगा स्नान और दीपदान का बड़ा महत्व है। इलाहाबाद, अयोध्या, वाराणसी आदि तीर्थ स्थानों में इसे बड़े पैमाने पर मनाया जाता है।
कार्तिक पूर्णिमा पूजा-विधि
1. सुबह उठकर ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करें।
2. अगर पास में गंगा नदी मौजूद है तो वहां स्नान करें।
3. सुबह के वक्त मिट्टी के दीपक में घी या तिल का तेल डालकर दीपदान करें।
4. भगवान विष्णु की पूजा करें।
5. श्री विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करें।
6. घर में हवन या पूजन करें।
7. घी, अन्न या खाने की कोई भी वस्तु दान करें।
8. शाम के समय भी मंदिर में दीपदान करें।
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क्या है इस पूर्णिमा का महत्व
कहा जाता है कि इस पूर्णिमा तिथि पर ही भगवान शिव ने राक्षस त्रिपुरासुर का वध किया था। इसलिए इस दिन को त्रिपुरी पूर्णिमा कहा जाता है। इस दिन चंद्रोदय के समय शिव जी और कृतिकाओं की पूजा करने से भगवान शंकर जल्द प्रसन्न होते हैं। इसके साथ ही इस दिन दीप दान का विशेष महत्व है।
कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही संध्या काल में भगवान विष्णु का मत्स्यावतार हुआ था। इसलिए इस दिन विष्णु जी की पूजा भी की जाती है। इस दिन गंगा स्नान के बाद दीप दान का पुण्य फल दस यज्ञों के बराबर होता है।
गंगा स्नान के बाद जरूरतमंदों को दान करना चाहिए। इस दिन मौसमी फल, उड़द दाल, चावल आदि का दान शुभ होता है।
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कार्तिक पूर्णिमा व्रत कथा
दैत्य तारकासुर के तीन पुत्र थे- तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली। जब भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया तो उसके पुत्रों को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने देवताओं से बदला लेने के लिए घोर तपस्या कर ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया। जब ब्रह्माजी प्रकट हुए तो उन्होंने अमर होने का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्माजी ने उन्हें इसके अलावा कोई दूसरा वरदान मांगने के लिए कहा।
तब उन तीनों ने ब्रह्माजी से कहा कि- आप हमारे लिए तीन नगरों का निर्माण करवाईए। हम इन नगरों में बैठकर सारी पृथ्वी पर आकाश मार्ग से घूमते रहें। एक हजार साल बाद हम एक जगह मिलें। उस समय जब हमारे तीनों पुर (नगर) मिलकर एक हो जाएं, तो जो देवता उन्हें एक ही बाण से नष्ट कर सके, वही हमारी मृत्यु का कारण हो। ब्रह्माजी ने उन्हें ये वरदान दे दिया।
ब्रह्माजी का वरदान पाकर तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली बहुत प्रसन्न हुए। ब्रह्माजी के कहने पर मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया। उनमें से एक सोने का, एक चांदी का व एक लोहे का था। सोने का नगर तारकाक्ष का था, चांदी का कमलाक्ष का व लोहे का विद्युन्माली का।
अपने पराक्रम से इन तीनों ने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया। इन दैत्यों से घबराकर इंद्र आदि सभी देवता भगवान शंकर की शरण में गए। देवताओं की बात सुनकर भगवान शिव त्रिपुरों का नाश करने के लिए तैयार हो गए। विश्वकर्मा ने भगवान शिव के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया।
चंद्रमा व सूर्य उसके पहिए बने, इंद्र, वरुण, यम और कुबेर आदि लोकपाल उस रथ के घोड़े बने। हिमालय धनुष बने और शेषनाग उसकी प्रत्यंचा। स्वयं भगवान विष्णु बाण तथा अग्निदेव उसकी नोक बने। उस दिव्य रथ पर सवार होकर जब भगवान शिव त्रिपुरों का नाश करने के लिए चले तो दैत्यों में हाहाकर मच गया।
दैत्यों व देवताओं में भयंकर युद्ध छिड़ गया। जैसे ही त्रिपुर एक सीध में आए, भगवान शिव ने दिव्य बाण चलाकर उनका नाश कर दिया। त्रित्रुरों का नाश होते ही सभी देवता भगवान शिव की जय-जयकार करने लगे। त्रिपुरों का अंत करने के लिए ही भगवान शिव को त्रिपुरारी भी कहते हैं।