अद्भुत है यह यात्रा, श्रद्धा-विश्वास से होती है पूर्ण
सावन का महीना आरंभ होने के साथ कांवड़ियों के जत्थे कांवड़ यात्रा पर निकल पड़ते हैं। कांवड़ यात्रा आरंभ होने के पीछे समुद्र मंथन की घटना है। समुद्र मंथन में निकले विष का पान करने के बाद भगवान शिव का...
सावन का महीना आरंभ होने के साथ कांवड़ियों के जत्थे कांवड़ यात्रा पर निकल पड़ते हैं। कांवड़ यात्रा आरंभ होने के पीछे समुद्र मंथन की घटना है। समुद्र मंथन में निकले विष का पान करने के बाद भगवान शिव का कंठ नीला हो गया। सभी देवताओं ने हलाहल विष का प्रभाव कम करने के लिए पवित्र गंगाजल, भगवान शिव पर अर्पित करना शुरू कर दिया। तभी से भगवान शिव के जलाभिषेक की परंपरा का आरंभ माना जाता है। कांवड़िये हरिद्वार और गौमुख से गंगाजल लाकर भगवान शिव पर अर्पित करते हैं।
सावन माह भगवान शिव की भक्ति का महीना है। इस माह भगवान शिव के जलाभिषेक का विशेष महत्व है। जलाभिषेक से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं और भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। कांवड़ यात्रा सदियों से चली आ रही है। कहा जाता है कि सबसे पहले भगवान शिव के परमभक्त भगवान परशुराम ने सबसे पहली कांवड़ उठाई थी। उन्हें पहला कांवड़िया माना जाता है। भगवान परशुराम ने बागपत के पास स्थित पुरा महादेव में कांवड़ लाकर जलाभिषेक किया था। आज भी यहां लाखों शिवभक्त, भोले भंडारी का जलाभिषेक करते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि श्रवण कुमार ने सबसे पहली बार कांवड़ यात्रा की थी। उनके माता-पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान की इच्छा प्रकट की थी। कुछ मान्यताओं में भगवान श्रीराम को पहला कांवड़िया माना जाता है। इस पावन यात्रा में श्रद्धा-विश्वास के साथ शिवभक्त सैकड़ों मील की दूरी पैदल तय करते हैं। श्रावण मास में कांवड़ के माध्यम से भगवान शिव पर जल अर्पित करने से अत्याधिक पुण्य की प्राप्ति होती है। भगवान शिव पर अर्पित किया जाने वाला जल गंगाजी की धारा में से ही लिया जाता है। यह यात्रा लगभग 15 दिन चलती है।
इस आलेख में दी गई जानकारियां धार्मिक आस्थाओं और लौकिक मान्यताओं पर आधारित हैं, जिसे मात्र सामान्य जनरुचि को ध्यान में रखकर प्रस्तुत किया गया है।