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दैवीय ऊर्जा का करें आह्वान, शक्ति समस्त सृष्टि के लिए है गर्भ

शक्ति का अर्थ बल, क्षमता और ऊर्जा है। शक्ति समस्त सृष्टि के लिए गर्भ है और इसलिए इसे दिव्यता के मातृ पक्ष के रूप में व्यक्त किया जाता है। शक्ति सभी प्रकार की गतिशीलता, कांति, सौंदर्य, समता, शांति और...

दैवीय ऊर्जा का करें आह्वान, शक्ति समस्त सृष्टि के लिए है गर्भ
गुरुदेव श्रीश्री रविशंकर,नई दिल्लीTue, 13 Apr 2021 01:01 PM
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शक्ति का अर्थ बल, क्षमता और ऊर्जा है। शक्ति समस्त सृष्टि के लिए गर्भ है और इसलिए इसे दिव्यता के मातृ पक्ष के रूप में व्यक्त किया जाता है। शक्ति सभी प्रकार की गतिशीलता, कांति, सौंदर्य, समता, शांति और पोषण के लिए बीज है। शक्ति जीवनदायिनी है। सृष्टि के पांच पक्ष हैं। अस्ति अर्थात ‘होना’; भाति अर्थात ‘ज्ञान और अभिव्यक्ति’; प्रीति अर्थात ‘प्रेम’, नाम अर्थात ‘नाम’; रूप अर्थात ‘रूप’। इसी तरह पदार्थ के दो पक्ष हैं - नाम और रूप। चैतन्य यानी चेतना के तीन पक्ष हैं, अस्ति अर्थात ‘यह है’, भाति अर्थात ‘यह जानता है’ और ‘व्यक्त करता है’ और प्रीति अर्थात ‘यह प्रेम’ है। चैतन्य के तीन पक्षों से अवगत न रहना और नाम व रूप से ही खुद को बांध देना ही माया अर्थात अज्ञान या भ्रम है। देवी की दिव्य ऊर्जा या शक्ति अलग-अलग स्तर पर सक्रिय रहती है। उसके विभिन्न कार्यात्मक पहलुओं के अलग-अलग नाम और रूप हैं।

शक्ति में ‘इ’ ऊर्जा है। ‘इ’ के बिना, ‘शिव’ ‘शव’ बन जाता है, संस्कृत में  जिसका अर्थ प्राणहीन होता है। शरीर में ऊर्जा या शक्ति के सात केंद्र हैं, जिन्हें संस्कृत में चक्र कहा जाता है। उपासना की शाक्त परंपरा में सभी ऊर्जा केंद्रों पर ध्यान दिया जाता है।  सभी चक्रों में  देवी विभिन्न रूपों में  निवास करती है, यह मानते हुए श्री चक्र को पूरे शरीर का प्रतिनिधि माना जाता है। प्रत्येक चक्र या ऊर्जा केंद्र के साथ विभिन्न भावनाएं जुड़ी हुई हैं। 

पहला चक्र, मूलाधार, रीढ़ के आधार में स्थित है। यहां ऊर्जा जड़ता या उत्साह के रूप में प्रकट होती है। इस चक्र में निवास करने वाली देवी पंचमुखी हैं, जो पांच ज्ञाने्द्रिरयों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन ऊर्जा केंद्रों के साथ संगीत वाद्ययंत्र भी जुड़े हुए हैं। दूसरा स्वाधिष्ठान चक्र रीढ़ के आधार से सिर्फ चार इंच ऊपर यौन केंद्र है। यहां ऊर्जा प्रजनन क्षमता या रचनात्मकता के रूप में प्रकट होती है। यहां देवी मां के चार वेदों का प्रतिनिधित्व करने वाले चार मुख हैं।

तीसरा मणिपुर चक्र नाभि केंद्र है, जहां ऊर्जा चार भावनाओं के रूप में प्रकट होती है: उदारता, प्रसन्नता, लोभ और ईष्र्या (दो सकारात्मक भावनाएं और दो नकारात्मक भावनाएं)। मणिपुर में उसके तीन मुख हैं, जो सृष्टि  (निर्माण), स्थिति (रखरखाव) और लय (विघटन) का प्रतिनिधित्व करते हैं। तुरही और शहनाई जैसे सुषिर वाद्य उपकरण इस ऊर्जा केंद्र से जुड़े हैं। चौथा अनाहत चक्र वक्षस्थल में स्थित है। यहां ऊर्जा तीन भावनाओं के रूप में प्रकट होती है- प्रेम, भय और द्वेष। यहां उसे दो मुखों से दर्शाया गया है, जो ध्यान को अंतर्मुखी और बाह्यमुखी केंद्रित करने को दर्शाता है। यह ऊर्जा केंद्र वायलिन और वीणा जैसे तंत्री वाद्य उपकरणों के ध्वनि कंपन से प्रभावित होता है।

पांचवां चक्र विशुद्धि गले क्षेत्र में स्थित है, इस केंद्र पर ऊर्जा दो भावनाओं के रूप में प्रकट होती है - कृतज्ञता और शोक। विशुद्धि चक्र में देवी का एक ही मुख है। वह सभी द्वंद्वों से परे है। बांसुरी की धुन इस चक्र से जुड़ती है। छठा आज्ञा चक्र दोनों भौंहों के बीच स्थित है, इस केंद्र पर ऊर्जा क्रोध और सतर्कता के रूप में प्रकट होती है। इस चक्र में देवी छह-मुख वाली हैं, जो पांच इंद्रियों (दृष्टि, श्रवण, गंध, स्पर्श, स्वाद) और मन का प्रतिनिधित्व करती हैं। झांझ, झंकार और घंटियां इस ऊर्जा केंद्र से जुड़ी हैं।

सातवां सहस्रार चक्र सिर के शीर्ष पर स्थित है, इस केंद्र पर ऊर्जा आनंद के रूप में प्रकट होती है। सहस्रार को ब्रह्मरंध्र भी कहा जाता है। सहस्रार में, देवी को हजार पंखुड़ियों वाले पूर्ण खिले हुए कमल के रूप में दर्शाया गया है। सृष्टि के सभी गुण उसमें हैं और पूर्ण क्षमता के साथ खिल गए हैं। शंख इस ऊर्जा केंद्र से जुड़ा एक वाद्य यंत्र है। जब हम एक सात्विक यानी शुद्ध और अनुशासित जीवन जीते हैं, तो सभी चक्र समुचित रूप से सक्रिय हो जाते हैं और देवी के विभिन्न गुणों की उपस्थिति अनुभव में आने लगती है। उदाहरण के लिए सृजनात्मकता, मधुर वाणी, उदात्त भाव, आनंद, जागरूकता, कृतज्ञता आदि गुणों को आध्यात्मिक साधना पर उचित ध्यान देने से बढ़ाया जा सकता है।

दिव्य ज्ञान, बुद्धि और अंतज्र्ञान का एक संयोजन है। ओजस अंत:प्रेरणा है अर्थात ऊर्जा का सात्विक क्षेत्र, जो केवल साधना द्वारा प्रकट या विकसित होता है। जब कुंडलिनी शक्ति का आह्वान किया जाता है, तो ओजस सुषुम्ना नाड़ी (ऊर्जा प्रवाह के लिए मार्ग) के माध्यम से छह चक्रों से होते हुए ब्रह्मरंध्र में सिद्धि या परिपूर्ण संतुलन की स्थिति को जन्म देता है।

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