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ईश्वर-प्रेमी को पूरा जगत है प्रिय

भक्ति जिन विविध रूपों में प्रकाशित होती है, उनमें से कुछेक ये हैं- ‘श्रद्धा'। लोग मंदिरों और पवित्र स्थानों के प्रति श्रद्धा क्यों प्रकट करते हैं? इसलिए कि वहां भगवान की पूजा होती है, ऐसे...

ईश्वर-प्रेमी को पूरा जगत है प्रिय
स्वामी विवेकानन्दTue, 03 Jul 2018 08:17 AM
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भक्ति जिन विविध रूपों में प्रकाशित होती है, उनमें से कुछेक ये हैं- ‘श्रद्धा'। लोग मंदिरों और पवित्र स्थानों के प्रति श्रद्धा क्यों प्रकट करते हैं? इसलिए कि वहां भगवान की पूजा होती है, ऐसे सभी स्थानों से उनकी सत्ता अधिक संबद्ध होती है। प्रत्येक देश के लोग धर्म के आचार्यों के प्रति श्रद्धा क्यों प्रकट करते हैं? क्योंकि ये सब आचार्य उन्हीं भगवान की महिमा का उपदेश देते हैं।.

स्वामी विवेकानन्द
इस श्रद्धा का मूल है प्रेम। हम जिससे प्रेम नहीं करते, उसके प्रति कभी श्रद्धालु नहीं हो सकते। इसके बाद है ‘प्रीति' अर्थात् ईश्वर-चिंतन में आनन्द। मनुष्य इंद्रिंयों-विषयों में कितना तीव्र आनंद अनुभव करता है! भक्त को चाहिए कि वह भगवान के प्रति इसी प्रकार का तीव्र प्रेम रखे। इसके उपरांत आता है ‘विरह'- प्रेमास्पद के अभाव में होने वाला तीव्र दुख। यह दुख संसार के समस्त दुखों में सबसे मधुर है- अत्यंत मधुर है। जब मनुष्य भगवान को न पा सकने के कारण, संसार में एकमात्र जानने योग्य वस्तु को न जान सकने के कारण भीतर तीव्र वेदना अनुभव करने लगता है और फलस्वरूप अत्यंत व्याकुल बिल्कुल पागल सा हो जाता है, तो उस दशा को विरह कहते हैं। मन की ऐसी दशा में प्रेमास्पद को छोड़ उसे और कुछ अच्छा नहीं लगता (एकरतिविचिकित्सा)। बहुधा यह विरह सांसारिक प्रणय में देखा जाता है। ठीक इसी प्रकार पराभक्ति हृदय पर अपना प्रभाव जमा लेती है, तो अन्य अप्रिय विषयों की उपस्थिति हमें खटकने लगती है, यहां तक कि प्रेमास्पद भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी विषय पर बातचीत तक करना हमारे लिए अरुचिकर हो जाता है।.

प्रेम की इससे भी उच्च अवस्था तो वह है, जब उस प्रेमास्पद भगवान के लिए जीवन धारण किया जाता है, जब उस प्रेमस्वरूप के निमित्त प्राण धारण करना सुंदर और सार्थक समझा जाता है। ऐसे प्रेमी के लिए उस प्रेमास्पद भगवान बिना एक क्षण भी रहना असम्भव हो उठता है। उस प्रियतम का चिन्तन हृदय में हमेशा बने रहने के कारण ही उसे जीवन इतना मधुर प्रतीत होता है। शास्त्रों में इसी अवस्था को ‘तदर्थप्राणसंस्थान' कहा है। ‘तदीयता' तब आती है, जब साधक भक्ति-मत के अनुसार पूर्णावस्था को प्राप्त हो जाता है, जब वह श्री भगवान के चरणारविंदों का स्पर्श कर लेता है, तब उसकी प्रकृति विशुद्ध हो जाती है- सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाती है। तब उसके जीवन की साध पूरी हो जाती है। .

फिर भी, इस प्रकार के बहुत से भक्त उसकी उपासना के निमित्त ही जीवन धारण किए रहते हैं। इस जीवन के इसी एकमात्र सुख को वे छोड़ना नहीं चाहते। ‘हे राजन! हरि के ऐसे मनोहर गुण हैं कि जो लोग उनको प्राप्त कर संसार की सारी वस्तुओं से तृप्त हो गए हैं, जिनके हृदय की सब ग्रंथियां खुल गई हैं, वे भी भगवान की निष्काम भक्ति करते हैं।'- (श्रीमद्भागवत)... ‘जिस भगवान की उपासना सारे देवता मुमुक्षु और ब्रह्मवादीगण करते हैं।'- (नृसिंहतापनी उपनिषद्) ऐसा है प्रेम का प्रभाव! जब मनुष्य अपने आपको बिल्कुल भूल जाता है और जब उसे यह भी ज्ञान नहीं रहता कि कोई चीज अपनी है, तभी उसे यह ‘तदीयता' की अवस्था प्राप्त होती है। तब सब कुछ उसके लिए पवित्र हो जाता है, क्योंकि वह सब उसके प्रेमास्पद का ही तो है। इसी प्रकार जो मनुष्य भगवान से प्रेम करता है, उसके लिए सारा संसार प्रिय हो जाता है, क्योंकि यह संसार आखिर उसी का तो है।.

(विवेकानन्द साहित्य से साभार)

भक्ति में एक ऐसी अवस्था आती है, जब भक्त ईश्वर के प्रेम में ऐसा मगन हो जाता है कि उसे ईश-चर्चा के सिवा कुछ भी रुचिकर नहीं लगता। ऐसे में उसके मन से अपने पराये का भेद मिट जाता है और वह ईश्वर की समूची सृष्टि को समभाव से प्यार करने लगता है।.

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