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मां कूष्मांडा की पूजा से रोग, शोक हो जाते हैं नष्ट

“सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च। दधानाहस्तपद्याभ्यां कुष्माण्डा शुभदास्तु में॥” श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा है, अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के...

मां कूष्मांडा की पूजा से रोग, शोक हो जाते हैं नष्ट
लाइव हिन्दुस्तान टीम, मेरठ Wed, 21 Mar 2018 07:10 AM
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“सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च।
दधानाहस्तपद्याभ्यां कुष्माण्डा शुभदास्तु में॥”

श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा है, अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है। नवरात्रि के चतुर्थ दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। श्री कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं।

इनकी आराधना से मनुष्य त्रिविध ताप से मुक्त होता है। मां कुष्माण्डा सदैव अपने भक्तों पर कृपा दृष्टि रखती है। इनकी पूजा आराधना से हृदय को शांति एवं लक्ष्मी की प्राप्ति होती हैं।

देवी कुष्मांडा पूजा विधि

जो साधक कुण्डलिनी जागृत करने की इच्छा से देवी अराधना में समर्पित हैं, उन्हें दुर्गा पूजा के चौथे दिन माता कूष्माण्डा की सभी प्रकार से विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए।फिर मन को अनहत चक्र में स्थापित करने हेतु मां का आशीर्वाद लेना चाहिए और साधना में बैठना चाहिए।

इस प्रकार जो साधक प्रयास करते हैं,उन्हें भगवती कूष्माण्डा सफलता प्रदान करती हैं। जिससे व्यक्ति सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है और मां का अनुग्रह प्राप्त करता है। दुर्गा पूजा के चौथे दिन देवी कूष्माण्डा की पूजा का विधान है। इस दिन भी आप सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी-देवता की पूजा करें।

माता के परिवार में शामिल देवी-देवता की पूजा करें, जो देवी की प्रतिमा के दोनों तरफ विरजामन हैं।इनकी पूजा के पश्चात देवी कूष्माण्डा की पूजा करें। पूजा की विधि शुरू करने से पहले हाथों में फूल लेकर देवी को प्रणाम कर इस मंत्र का ध्यान करें-

“सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च. दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे..।।”

देवी की पूजा के पश्चात महादेव और परम पिता की पूजा करनी चाहिए। श्री हरि की पूजा देवी लक्ष्मी के साथ ही करनी चाहिए।

कुष्मांडा मंत्र
या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

कवच
हंसरै में शिर पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्।
हसलकरीं नेत्रेच, हसरौश्च ललाटकम्॥
कौमारी पातु सर्वगात्रे,वाराही उत्तरे तथा,पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।
दिगिव्दिक्षु सर्वत्रेव कूं बीजं सर्वदावतु॥

 

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